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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक - ७]
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से चौवीसवें तीर्थंकर के शासन (तीर्थ) में आता है, तब वह चातुर्याम धर्म से पंच महाव्रतरूप धर्म का स्वीकार करता है अथवा जब प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का शासनवर्ती शिष्य शिष्य- अवस्था से महाव्रतारोपणअवस्था में प्रवेश करता है तब भी वह सामायिकसंयम से छेदोपस्थापनीय संयम प्राप्त करता है और जब श्रेणी पर आरोहण करता है तब सामायिकसंयम से आगे बढ़कर सूक्ष्मसम्परायसंयम प्राप्त करता है अथवा जब संयम के परिणामों से गिर जाने से संयमासंयम अथवा असंयम अवस्था को प्राप्त करता है ।
(२) छेदोपस्थापनीयसंयत अपना संयम छोड़ते हुए सामायिकसंयम स्वीकार करता है, उदाहरणार्थप्रथम तीर्थंकर का शासनवर्ती साधु, दूसरे तीर्थंकर के शासन को स्वीकार करते समय छेदोपस्थापनीयसंयम को छोड़कर सामायिकसंयम स्वीकार करता है । अथवा छेदोपस्थापनीयसंयम को छोड़ते हुए साधु परिहारविशुद्धिसंयम स्वीकार करते हैं, क्योंकि छेदोपस्थापनीयसंयम ही परिहारविशुद्धिसंयम स्वीकार करने के योग्य होते हैं, इत्यादि ।
(३) परिहारविशुद्धिकसंयत परिहारविशुद्धिसंयम को छोड़ कर पुनः गच्छ (संघ) में आने के कारण छेदोपस्थापनीयसंयम स्वीकार करता है अथवा उस अवस्था में कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो वह देवों में उत्पन्न होने के कारण असंयम को प्राप्त करता है ।
(४) सूक्ष्मसम्परायसंयत श्रेणी से गिरते हुए सूक्ष्मसम्परायसंयम को छोड़कर यदि वह पहले सामायिकसंयत हो तो सामायिकसंयम प्राप्त करता है और यदि वह पहले छेदोपस्थापनीयसंयत हो तो छेदोपस्थापनीयसंयम प्राप्त करता है । यदि श्रेणी ऊपर चढ़े तो यथाख्यातसंयम प्राप्त करता है और यदि वह काल करे तो देव होकर असंयम को प्राप्त होता है ।
(५) उपशम श्रेणी पर आरूढ होने वाला यथाख्यातसंयत, श्रेणी से प्रतिपतित हो तो यथाख्यातसंयत को छोड़ता हुआ सूक्ष्मसम्परासंयम को प्राप्त करता है और उस समय उसकी मृत्यु हो जाए तो देवों में उत्पन्न होने के कारण असंयम को प्राप्त करता है और यदि वह स्नातक हो तो सिद्धिगति को प्राप्त करता है । पच्चीसवाँ संज्ञाद्वार : पंचविध संयतों में संज्ञा की प्ररूपणा
१३४. सामाइयसंजए णं भंते! किं सण्णोवउत्ते होज्जा, नोसण्णोवउत्ते होज्जा ?
गोयमा ! सण्णोवउत्ते जहा बउसो (उ० ६ सु० १७४ ) ।
[१३४ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत संज्ञोपयुक्त (आहारादि संज्ञा में आसक्त) होता है या नोसंज्ञोपयुक्त होता है ?
[१३४ उ.] गौतम! वह संज्ञोपयुक्त होता है, इत्यादि सब कथन ( उ. ६, सू. १७४ में लिखित) बकुश के समान जानना ।
१३५. एवं जाव परिहारविसुद्धिए ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१५
(ख) भगवती (हिन्दी - विवेचन ) अ. ७, पृ. ३४६९-७०