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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-७]
[४७७ सूक्ष्मसम्पराय के एक भव में चार आकर्ष होते हैं और उसकी प्राप्ति तीन भव तक हो सकती है। इस दृष्टि से उसके एक भव में चार-बार, दूसरे भव में चार बार और तीसरे भव में एक बार, इस प्रकार अनेक भवों में नौ बार आकर्ष होते हैं । यथाख्यातसंयत के एक भव में दो, दूसरे भव में दो और तीसरे भव में एक आकर्ष होने से तीन भवों में पांच आकर्ष होते हैं। उनतीसवाँ काल (स्थिति) द्वार : एकवचन और बहुवचन में स्थिति-प्ररूपणा
१५४. सामाइयसंजए णं भंते! कालतो केविचिरं होति ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुबकोडी। [१५४ प्र.] भगवन् ! सामायिक संयत कितने काल तक रहता है ? (अर्थात् उसकी स्थिति कितनी है?) [१५४ उ.] गौतम! वह जघन्य में एक समय और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष पर्यन्त रहता
१५५. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। .[१५५] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी कहना चाहिए।
१५६. परिहारविशुद्धिए जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणएहिं एक्कूणतीसाए वासेहि ऊणिया पुव्वकोडी।
[१५६] परिहारविशुद्धिकसंयत जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन २९ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष पर्यन्त रहता है।
१५७. सुहमसंपराए जहा नियंठे ( उ० ६ सु० २००)। [१५७] सूक्ष्मसम्परायसंयत के विषय में (उ.६, सू. २०२ में उक्त) निर्ग्रन्थ के अनुसार कहना चाहिए। १५८. अहक्खाए जहा सामाइयसंजए। [१५८] यथाख्यातसंयत का कथन सामायिकसंयत के समान जांनना। १५९. सामाइयसंजया णं भंते! कालतो केवचिरं होंति ? गोयमा! सव्वद्धं। [१५९ प्र.] भगवन् ! (अनेक) सामायिकसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [१५९ उ.] गौतम! वे सर्वाद्धा (सदाकाल) रहते हैं। १६०. छेदोवट्ठावणिएसु पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं अड्डाइजाई वाससयाई, उक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साई। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१६
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३४७४-३४७५