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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक- ७]
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समय मृत्यु की अपेक्षा से होता है। वर्द्धमान परिणाम को प्राप्त करने के एक समय बाद ही उसका मरण हो जाए तो उसका जघन्य परिणाम होता है तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त वर्द्धमान परिणाम तो उस गुणस्थान की स्थिति ही हैं। इसी प्रकार हीयमान परिणाम के विषय में समझना चाहिए ।
यथाख्यातसंयत के परिणाम —जो यथाख्यातसंयत केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं और जो शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं उनका वर्द्धमान परिणाम जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। उसके बाद उसका व्यवच्छेद हो जाता है । अवस्थित परिणाम जघन्य एक समय का उस अपेक्षा से घटित होता है, जबकि उपशम अवस्था की प्राप्ति के प्रथम समय के बाद ही उसका मरण हो जाए। उत्कृष्ट अवस्थित परिणाम देशोन पूर्वकोटिं उस अपेक्षा से घटित होता है, जबकि पूर्वकोटिवर्ष की आयु वाला सातिरेक आठ वर्ष की आयु में संयम अंगीकार करके शीघ्र ही केवलज्ञान प्राप्त कर ले। इक्कीसवाँ बन्धद्वार : कर्म-प्रकृति-बन्ध - प्ररूपणा
११८. सामाइयसंजए णं भंते! कति कम्मपगडीओ बंधइ ?
गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, एवं जहा बउसे ( उ० ६ सु० १५२ ) ।
` [११८ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कितनी कर्मप्रकृितियाँ बाँधता है ?
[११८ उ.] गौतम! वह सात या आठ कर्मप्रकृतियों को बाँधता है; इत्यादि (उ. ६, सू. १५२ में उल्लिखित) बकुश के समान जानना ।
११९. एवं जाव परिहारविसुद्धिए ।
[११९] इसी प्रकार परिहारविशुद्धिकसंयत पर्यन्त कहना चाहिए ।
१२०. सुहुमसंपरायसंजए० पुच्छा ।
गोयमा ! आउय- मोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ बंधइ ।
[१२० प्र.] भगवन् ? सूक्ष्मसम्परायसंयत कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ?
[१२० उ.] गौतम! वह आयुष्य और मोहनीय कर्म को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ।
१२१. अहक्खायसंजए जहा सिणाए (उ०६ सु० १५६ ) [ दारं २१]
[१२१] यथाख्यातसंयत का कथन (उ.६, सू. १५६ में सूचित) स्नातक के समान है। [ इक्कीसवां द्वार]
विवेचन—– सूक्ष्मसम्परायसंयत के ६ कर्मों का ही बन्ध क्यों ? – आयुष्यकर्म का बन्ध सातवें अप्रमत्त-गुणस्थान तक होता है। सूक्ष्मसम्परायसंयत दसवें गुणस्थानवर्ती होते हैं; इसलिए वे आयुष्यकर्म का बन्ध नहीं करते तथा बादर कषाय का उदय न होने से मोहनीयकर्म का बन्ध भी नहीं करते। अतः इन दो के अतिरिक्त शेष छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है ।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१४
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१५