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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-६]
[४४३ कि यह द्वार क्षेत्रावगाहनाद्वार के समान है। प्रश्न होता है कि जब दोनों द्वार एक-सरीखे हैं, तब ये पृथक्-पृथक् क्यों कहे गए हैं ? इसका समाधान यह है कि जितने प्रदेशों को शरीर अवगाहित करके रहता है, उतने क्षेत्र को क्षेत्रावगाहना कहते हैं तथा अवगाढ़ क्षेत्र (अर्थात् शरीर जितने क्षेत्र को अवगाहित करके रहा हुआ है, वह क्षेत्र) और उसका पार्श्ववर्ती क्षेत्र जिसके साथ शरीरप्रदेशों का स्पर्श हो रहा है, वह क्षेत्र भी स्पर्शनाक्षेत्र कहलाता है। यह क्षेत्रावगाहना और क्षेत्रस्पर्शना में अन्तर है।' चौतीसवाँ भावद्वार : औपशमिकादि भावों का निरूपण
२२५. पुलाए णं भंते ! कयरम्मि भावे होज्जा ? गोयमा ! खयोवसमिए भावे होजा। [२२५ प्र.] भगवन् ! पुलाक किस भाव में होता है ? [२२५ उ.] गौतम ! वह क्षायोपशमिक भाव में होता है। २२६. एवं जाव कसायकुसीले। [२२६ प्र.] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक जानना। २२७. नियंठे० पुच्छा। गोयमा ! ओवसमिए वा खइए वा भावे होजा। [२२७ प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ किस भाव में होता है ? [२२७ उ.] गौतम ! वह औपशमिक या क्षायिक भाव में होता है। २२८. सिणाये० पुच्छा। गोयमा ! खइए भावे होज्जा। [ दारं ३४] [२२८ प्र.] भगवन् ! स्नातक किस भाव में होता है ? [२२८ उ.] गौतम ! वह क्षायिक भाव में होता है। [चौतीसवाँ द्वार]
विवेचन—निष्कर्ष—पुलाक से लेकर कषायकुशील तक क्षायोपशमिक भाव में होते हैं, निर्ग्रन्थ औपशमिक अथवा क्षायिक भाव में और स्नातक एकमात्र क्षायिक भाव में होते हैं। पैंतीसवाँ परिमाणद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों का एक समय का परिमाण
२२९. पुलाया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा ? गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि। जति अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०८
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७. पृ. ३४२७ . २. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७. पृ. ३४२८