Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्पिणिकाले नो होजा।
[५९-१ प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिसंयत अवसर्पिणीकाल में होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न।
[५९-१ उ.] गौतम ! वह अवसर्पिणीकाल में होता है, उत्सर्पिणीकाल में भी होता है, किन्तु नोअवसर्पिणीकाल में नहीं होता।
[२] जदि ओसप्पिणिकाले होजा जहा पुलाओ ( उ० ६ सु० ६८ [२])।
[५९-२] यदि अवसर्पिणीकाल में होता है, तो (उ. ६, सूत्र ६८-२ में कहे अनुसार) पुलाक के समान होता है।
[३] उस्सप्पिणिकाले वि जहा पुलाओ (उ० ६ सु०६८[३])। [५९-३] उत्सर्पिणीकाल में होता है, तो (उ. ६, सू. ६८-३ के अनुसार) पुलाक के समान होता है। ६०. सुहमसंपराओ जहा नियंठो ( उ० ६ सु० ७२)। [६०] सूक्ष्मसम्परायसंयत का कथन (उ.६, सू. ७२ के अनुसार) निर्ग्रन्थ के समान समझना चाहिए। ६१. एवं अहक्खाओ वि [ दारं १२]। [६१] इसी प्रकार यथाख्यातसंयत का (काल-विषयक कथन) निर्ग्रन्थ के समान जानना।
विवेचन—स्पष्टीकरण-सामायिकसंयत का काल बकुश के समान बताया गया है। अर्थात् अवसर्पिणीकाल के तीसरे, चौथे और पांचवें आरे में उसका जन्म और सद्भाव (संयम-विचरण) होता है तथा उत्सर्पिणीकाल के दूसरे, तीसरे और चौथे में उसका जन्म और तीसरे, चौथे आरे में उसका सद्भाव होता है। महाविदेहक्षेत्र में भी होता है। संहरण की अपेक्षा अन्य क्षेत्र (३० अकर्मभूमियों) में भी होता है। छेदोपस्थापनीयसंयत, सामायिकसंयतवत् जानना, किन्तु महाविदेहक्षेत्र में वह नहीं होता। परिहारविशुद्धिकासंयत का अवसर्पिणीकाल के तीसरे-चौथे आरे में एवं उत्सर्पिणीकाल के दूसरे-तीसरे आरे में जन्म और तीसरेचौथे आरे में सद्भाव होता है। सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत का अवसर्पिणी के तीसरे-चौथे आरे में जन्म और सद्भाव तथा उत्सर्पिणीकाल के दूसरे-तीसरे-चौथे आरे में जन्म और तीसरे, चौथे आरे में सद्भाव होता है । यह महाविदेहक्षेत्र में भी होता है तथा इसका संहरण अन्यत्र भी होता है।
सामायिकसंयत का नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणी के सुषमादि-समान तीन प्रकार के काल में (देवकुरु आदि में) बकुश के समान जन्म और सद्भाव का निषेध किया है तथा दुःषम-दुःषमा-समान काल में ( महाविदेह क्षेत्र में) सद्भाव कहा है । छेदोपस्थापनीयसंयत का चारों पलिभाग में (अर्थात् देवकुरु आदि में) तथा महाविदेह क्षेत्र में निषेध किया हैं। तेरहवाँ गतिद्वार : पंचविध संयतों में गतिप्ररूपणादि
६२. [१] सामाइयसंजए णं भंते ! कालगते समाणे कं गति गच्छति ?
१. भगवती. उपक्रम. पृष्ठ ६३५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१३