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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-७]
[४५३ [३० प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत क्या पुलाक यावत् स्नातक होता है ? [३० उ.] गौतम ! वह पुलाक यावत् कषायकुशील नहीं होता, किन्तु निर्ग्रन्थ या स्नातक होता है।
[पंचमद्वार] विवेचन—चारित्रद्वार में पुलाकादि का कथन क्यों?—सामायिक से लेकर यथाख्यात तक अपने आप में चारित्र ही है, किन्तु पुलाकादि का कथन चारित्रद्वार में करने का कारण यह है कि पुलाक आदि का परिणाम चारित्ररूप ही है। .. छठा प्रतिसेवनाद्वार : पंचविध संयतों में प्रतिसेवन-अप्रतिसेवनप्ररूपणा
[३१.१ ] सामाइयसंजए णं भंते ! किं पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा ? गोयमा ! पडिसेवए वा होज्जा, अपडिसेवए वा होज्जा। [३१.१ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी होता है ? [३१.१ उ.] गौतम ! वह प्रतिसेवी भी होता है और अप्रतिसेवी भी होता है। [२] जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुणपडिसेवए होजा० ? सेसं जहा पुलागस्स ( उ० ६ सू० ३५ [२])। [३१-२ प्र.] भगवन् ! यदि वह प्रतिसेवी होता है तो क्या मूलगुणप्रतिसेवी होता है ? इत्यादि प्रश्न।
[३१-१ उ.] गौतम ! इस विषय में अवशिष्ट समग्र कथन (उ.६, सू. ३५-२ में उक्त) पुलाक के समान जानना चाहिए। .
३२. जहा सामाइयसंजए एवं छेदोवट्ठावणिए वि। [३२] सामायिकसंयत के समान छेदोपस्थापनिकसंयत का कथन जानना चाहिए। ३३. परिहारविसुद्धियसंजए० पुच्छा। गोतमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होजा। [३३ प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिसंयत प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी होता है ? [३३ उ.] गौतम वह प्रतिसेवी नहीं होता, अप्रतिसेवी होता है। ३४. एवं जाव अहक्खायसंजए।[ दारं ६] [३४] इसी प्रकार यथाख्यातसंयत तक कहना चाहिए। [छठा द्वार]
विवेचन सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत प्रतिसेवी भी होते हैं और अप्रतिसेवी भी, किन्तु परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यातसंयत अप्रतिसेवी ही होते हैं।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९११