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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक- ७]
[१६ उ.] गौतम ! वह सराग होता है, वीतराग नहीं होता है।
१७, एवं सुहुमसंपरायसंजए ।
[१७] इसी प्रकार सूक्ष्मसम्परायसंयत- पर्यन्त कहना चाहिए ।
१८. अहक्खायसंजए जहा नियंठे ( उ० ६ सु० १९ ) । [ दारं ३ ] ।
[१८] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. ६ सू. १९ में कथित) निर्ग्रन्थ के समान जानना चाहिए। [ तृतीय द्वार ] विवेचन — निष्कर्ष — सामायिकसंयत आदि चार प्रकार के संयत सरागी होते हैं, अन्तिम यथाख्यातसंयत वीतरागी होता है ।
चतुर्थ कल्पद्वार : पंचविध संयतों में स्थितकल्पादि प्ररूपणा
१९. सामाइयसंजए णं भते ! किं ठियकप्पे होज्जा, अठियकप्पे होज्जा ?
गोयमा ! ठियकप्पे वा होज्जा, अठियकप्पे वा होज्जा ।
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[१९ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत स्थितकल्प में होता है या अस्थितकल्प में होता है ? [१९ उ.] गौतम ! वह स्थितकल्प में भी होता है और अस्थितकल्प में भी होता है ।
२०. छेदोवट्टावणियसंजए० पुच्छा ।
गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा, नो अठियकप्पे होज्जा ।
[२० प्र.] भगवन् ! छेदोपस्थापनिकसंयत स्थितकल्प में होता है या अस्थितकल्प में होता है ?
[२० उ. ] गौतम ! वह स्थितकल्प में होता है, अस्थितकल्प में नहीं होता है ।
२१. एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि ।
[२१] इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत के विषय में भी समझना चाहिए ।
२२. सेसा जहा सामाइयसंजए ।
[२२] शेष दो सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन सामायिकसंयत के समान जानना चाहिए।
२३. सामाइयसंजए णं भंते! किं जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा ? गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा जहा कसायकुसीले ( उ० ६ सु० २६ ) तहेव निरवसेसं ।
[२३ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में होता है या कल्पातीत में होता
हैं ?
[२३ उ.] गौतम ! वह जिनकल्प में होता है, इत्यादि समग्र कथन ( उ. ६ सू. २६ में उक्त) कषायकुशील के समान जानना चाहिए ।
२४. छेदोवट्ठावणिओ परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो (उ० ६ सू० २४ ) ।