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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[२४] छेदोपस्थापनिक और परिहारविशुद्धिक- संयत के सम्बन्ध में (उ. ६, सू. २४ में उक्त) बकुश के समान वक्तव्यता जानना ।
२५. सेसा जहा नियंठे ( उ० ६ सु० २७ ) [ दारं ४ ] |
[२५] शेष दो — सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन ( उ. ६, सू. २७ में उक्त) 'निर्ग्रन्थ ' के समान समझना चाहिए। [ चतुर्थ द्वार]
विवेचन — अस्थितकल्प और स्थितकल्प—मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के तीर्थ में और महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के तीर्थ में अस्थितकल्प होता है । वहाँ छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिचारित्र नहीं होता, इसलिए छेदोपस्थापनीयसंयत और परिहारविशुद्धिसंयत अस्थितकल्प में नहीं होते । पंचम चारित्रद्वार : पंचविध संयतों में पुलाकादि-प्ररूपणा
२६. सामाइयसंजए णं भंते! किं पुलाए होज्जा, बउसे जाव सिणाए होज्जा ?
गोयमा ! पुलाए वा होज्जा, बउसे जाव कसायकुसीले वा होज्जा, नो नियंठे होज्जा, नो सिणाए होना ।
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[२६ प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत पुलाक होता है, अथवा बकुश, यावत् स्नातक होता है ?
[२६ उ.] गौतम ! वह पुलाक, बकुश यावत् कषायकुशील होता है, किन्तु 'निर्ग्रन्थ' और स्नातक नहीं होता है।
२७. एवं छेदोवट्ठावणिए वि ।
[२७] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय के विषय में जानना चाहिए ।
२८. परिहारविसुद्धियसंजते णं भंते ! ० पुच्छा ।
गोयमा ! नो पुलाए, नो बउसे, नो पडिसेवणाकुसीले होज्जा, कसायकुसीले होज्जा, नो नियंठे होज्जा, नो सिणाए होज्जा ।
[ २८ प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत क्या पुलाक होता है, यावत् स्नातक होता है ?
[ २८ प्र.] गौतम ! वह पुलाक, बकुश, प्रतिसेवाकुशील, निर्ग्रन्थ या स्नातक नहीं होता, किन्तु कुशील होता है ।
२९. एवं सुहुमसंपराए वि ।
[२९] इसी प्रकार सूक्ष्मसम्परायसंयत के विषय में भी समझना चाहिए।
३०. अहक्खायसंजए० पुच्छा ।
गोयमा ! नो पुलाए होज्जा, जाव नो कसायकुसीले होज्जा, नियंठे वा होज्जा, सिणाए वा होजा । [ दारं ५ ]
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९११