Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चाहिए। तीन पल्योपम की आयु वाले भी नागकुमारों में देशोन दो पल्योपम की आयु बांधते हैं, क्योंकि वे अपनी आयु के बराबर अथवा उससे कम आयु तो बांध लेते हैं, परन्तु अधिक देवायु नहीं बांधते।' नागकुमार में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उपपातादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
११. जदि संखेजवासाउयसन्निपंचेंदिय० जाव किं पजत्तसंखेजवासाउय०, अपज्जत्तसंखे०? गोयमा ! पजत्तसंखेजवासाउय०, नो अपजत्तसंखेजवासाउय० । जाव
[११ प्र.] भगवन् ! यदि वे (नागकुमार) संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तियञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं ?
[११ उ.] गौतम ! वे पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न नहीं होते हैं।
१२. पजत्तसंखेजवासाउय० जाव जे भविए णागकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! जहन्नेणं दस वासासहस्साइं, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलितोवमाइं। एवं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स वत्तव्वया तहेव इह वि नवसु वि गमएसु, णवरं नागकुमारट्ठितिं संवेहं च जाणेजा। सेसं तं चेव। [१-९ गमगा]
[१२ प्र.] भगवन् ! यदि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, जो नागकुमारों में उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ?
_ [१२ उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है; इत्यादि जिस प्रकार असुरकुमारों के उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ नौ ही गमकों में कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि यहाँ नागकुमारों की स्थिति और संवेध जानना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना। [१-९ गमक] नागकुमार में उत्पन्न होने वाले असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में उपपात-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
१३. जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति किं सन्निमणु० असण्णिमणु० ? गोयमा ! सन्निमणु०, नो असन्निमणु० जहा असुरकुमारेसु उववजमाणस्स जाव
१. (क) कहा है—दाहिण—'दिवड्डपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं'
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८२३ (ग) भगवती. (हिन्दी-विवेचन पं. घेवरचन्दजी), भा. ६, पृ. ३०५७