Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
हंता, गोयमा ! असंखेज्जे लोए जाव भइयव्वाइं ।
[७ प्र.] भगवन् ! असंख्य लोकाकाश (लोक) में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं ?
[ ७ उ.] हाँ, गौतम ! असंख्यप्रदेशात्मक लोक (लोकाकाश) में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं । विवेचन—असंख्यलोकाकाश में अनन्त द्रव्यों का समावेश कैसे— प्रश्नकार का आशय यह है कि असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाश में अनन्तद्रव्य कैसे समा सकते हैं ? इसका समाधान यह हैं कि जैसे एक कमरा एक दीपक के प्रकाश पुद्गलों से भरा हुआ है। उसमें दो, चार, दस, वीस आदि दीपक रख देने पर भी उनके प्रकाश के पुद्गलों का समावेश उसी में हो जाता है, उसके लिए अलग कमरे या स्थान की आवश्यकता नहीं रहती । पुद्गल परिमणन की ऐसी विचित्रता है। इसी प्रकार असंख्यप्रदेशात्मक लोकाकाश में द्रव्यों के तथाविध परिमाणवश अनन्तद्रव्य समा जाते हैं। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है और न उनमें परस्पर संघर्ष होता है। अतः असंख्यप्रदेशात्मक लोक में अनन्तद्रव्यों का अवस्थान हो सकता है।
लोक के एक प्रदेश में पुद्गलों के चय-छेद-उपचय- अपचय का निरूपण ८. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कतिदिसिं पोग्गला चिज्जंति ?
गोयंमा ! निव्वाघाएणं छद्दिसिं; वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं । [८ प्र.] भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश में कितनी दिशाओं से आकर पुद्गल एकत्रित होते हैं ?
[८ उ.] गौतम ! निर्व्याघात से (व्याघात - प्रतिबन्ध न हो तो) छहों दिशाओं से तथा व्याघात की अपेक्षा — कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से (पुद्गल आकर एकत्रित होते हैं ।)
९. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कतिदिसि पोग्गला छिज्जंति ?
एवं चेव ।
[९ प्र.] भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश में एकत्रित पुद्गल कितनी दिशाओं से पृथक् होते हैं ? [९ उ.] गौतम ! यह भी पूर्व कथनानुसार समझना चाहिए।
१०. एवं उवचिज्जंति, एवं अवचिज्जंति ।
[१०] इसी प्रकार (अन्य पुद्गलों के मिलने से ) स्कन्ध के रूप में पुद्गल उपचित होते (बढ़ते ) हैं और (पुद्गलों के अलग-अलग होने पर) अपचित होते (घटते) हैं।
विवेचन—चय, छेद, उपचय और अपचय का लक्षण — चय बहुत-सी दिशाओं से आकर एक स्थान पर (एक आकाशप्रदेश में ) इकट्ठा होना— समा जाना । छेद — एक आकाशप्रदेश में एकत्रित
१. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३२०७ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५६