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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-३]
एवं चेव। [१९ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयक विमानों में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न। [१९ उ.] (गौतम ! ) पूर्ववत् जानना। २०. एवं अणुत्तरविमाणेसु। [२०] इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमानों के विषय में भी कहना चाहिए। [२१] एवं ईसिपब्भाराए वि। [२१] इसी प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के विषय में भी पूर्ववत् जानना।
विवेचन—निष्कर्ष-रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक में परिमण्डलादि पांचों संस्थान अनन्त होते हैं, संख्यात, असंख्यात नहीं होते हैं।' यवमध्यगत परिमण्डलादि संस्थानों की परस्पर अनन्तता की प्ररूपणा
२२. जत्थ णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा कि संखेजा, असंखेजा, अणंता?
गोयमा ! नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता।
[२२ प्र.] भगवन् ! जहाँ एक यवाकार (जौ के आकार) परिमण्डलसंस्थान है, वहाँ अन्य परिमण्डलसंस्थान असंख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ?
[२२ उ.] गौतम ! ये संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं। २३. वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेजा, असंखेज्जा ? एवं चेव। [२३ प्र.] भगवन् ! वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [२३ उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए। २४. एवं जाव आयता। [२४] इसी प्रकार आयतसंस्थान तक जानना। . २५. जत्थ णं भंते ! एगे वट्टे संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा०? एवं चेव; वट्टा संठाणा०? एवं चेव। [२५ प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकार एक वृत्तसंस्थान है, वहाँ परिमण्डलसंस्थान कितने हैं ? [२५ उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, पृ. ९७७