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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-६]
[४०७ ७१. एवं कसायकुसीले वि। [७१] कषायकुशील के विषय में भी (यही वक्तव्यता है)।
७२. नियंठो सिणातो य जहा पुलाए, नवरं एएसिं अब्भहियं साहरणं भाणियव्वं । सेसं तं चेव। [दारं १२]
[७२] निर्ग्रन्थ और स्नातक का कथन भी पुलाक के समान है। विशेष यह है कि इनका संहरण अधिक कहना चाहिए, अर्थात् संहरण की अपेक्षा ये सर्वकाल में होते हैं। शेष पूर्ववत्। [बारहवाँ द्वार]
विवेचन—तीन काल : स्वरूप, प्रकार और अवस्थिति—जैनदृष्टि से काल के तीन परिभाषिक विभाग हैं-(१) अवसर्पिणीकाल, (२) उत्सर्पिणीकाल और (३) नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल। जिस काल में जीवों के आयुष्य, बल शरीर आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता जाए, उसे अवसर्पिणीकाल कहते हैं । जिस काल में जीवों के आयुष्य, बल, शरीर आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाए, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दोनों में से प्रत्येक काल दस कोटाकोटि सागरोपम का होता है । यह दोनों प्रकार का काल पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्र में होता है। जिस काल में भावों की हानि-वृद्धि न होती हो, सदा एक-से परिणाम रहते हों, उस काल को नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल कहते हैं । यह काल पांच महाविदेह तथा पांच हैमवत आदि यौगलिक क्षेत्रों में होता है।
अवसर्पिणीकाल में ६ आरे होते हैं । यथा—(१) सुषम-सुषमा, (२) सुषमा, (३) सुषम-दुःषमा, (४) दुःषम-सुषमा, (५) दुःषमा और (६) दुःषम-दुःषमा।
उत्सर्पिणीकाल के भी विपरीत क्रम से ये ही ६ आरे होते हैं—(१) दुःषम-दुःषमा, (२) दुःषम, (३) दुःषम-सुषमा, (४) सुषम-दुःषमा, (५) सुषमा और (६) सुषमा-सुषमा।'
पुलाक-जन्म की अपेक्षा अवसर्पिणीकाल के तीसरे और चौथे आरे में तथा सद्भाव की अपेक्षा तीसरे, चौथे और पांचवें आरे में होता है। तीसरे और चौथे आरे में जन्म और सद्भाव दोनों होते हैं, तथा इनमें से जो चौथे आरे में जन्मा हुआ है, उसका सद्भाव (चारित्र-परिणाम) पांचवें आरे में भी होता है। उत्सर्पिणीकाल में जन्म की अपेक्षा पुलाक दूसरे, तीसरे और चौथे आरे में भी होता है । अर्थात् दूसरे आरे के अन्त में जन्म होता है और तीसरे आरे में वह चारित्र अंगीकार करता है। अत: तीसरे और चौथे आरे में जन्म और सद्भाव दोनों होते हैं । अर्थात् सद्भाव की अपेक्षा पुलाक तीसरे और चौथे आरे में ही होता है, क्योंकि इन्हीं आरों में चारित्र की प्रतिपत्ति (अंगीकार) होती है। देवकुरु और उत्तरकुरु में सुषम-सुषमा के समान काल होता है । हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष क्षेत्रों में सुषमा के समान काल होता है । हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में सुषम-दुःषमा के समान काल होता है और महाविदेहक्षेत्र में दुःषम-सुषमा के समान काल होता है। पुलाक का संहरण नहीं होता, जबकि निर्ग्रन्थ और स्नातक का संहरण हो सकता है। इसलिए संहरण की अपेक्षा निर्ग्रन्थ और स्नातक का सद्भाव सर्वकाल में होता है । तात्पर्य यह है कि पहले संहरण किए हुए मनुष्य को निर्ग्रन्थ और स्नातकत्व की
१. (क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७. पृ. ३३७४
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८९७