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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राप्ति होती है, क्योंकि निर्ग्रन्थ और स्नातक वेदरहित होते हैं और वेदरहित होते मुनियों का संह ण नहीं होता है। जैसा एक प्राचीन गाथा में कहा गया है
समणीमवगयवेयं परिहार-पुलायमप्पमत्तं च।
चोद्दसपुब्बिं आहारयं च, ण य कोइ संहरइ॥ अर्थात्-श्रमणी (साध्वी), वेदरहित, परिहार-विशुद्धि-चारित्री, पुलाक, अप्रमत्त-संयत (सप्तमगुणस्थानवर्ती), चौदह पूर्वधारी और आहारक-लब्धिमान्, इनका कोई संहरण नहीं करता।
कठिन शब्दार्थ—पलिभागे-समानकाल में। अब्भहियं—अधिक, अत्यधिक। तेरहवाँ गतिद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों की गति, पदवी तथा स्थिति की प्ररूपणा
७३. [१] पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे कं गतिं गच्छति ? गोयमा ! देवगतिं गच्छति। [७३-१ प्र.] भगवन् ! पुलाक मरण पाकर किस गति में जाता है ? [७३-१ उ.] गौतम ! वह देवगति में जाता है।
[२] देवगतिं गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववजेजा, वाणमंतरेसु उववजेजा, जोतिसवेमाणिएसु उववजेज्जा ?
गोयमा ! नो भवणवासीसु, नो वाणमंतरेसु, नो जोतिसेसु, वेमाणिएसु, उववजेज्जा।वेमाणिएसु उववजमाणे जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे उववजेजा।
[७३-२ प्र.] भगवन् ! यदि वह देवगति में जाता है तो क्या भवनपतियों में उत्पन्न होता है या वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है ?
[७३-२ उ.] गौतम ! वह भवनपतियों, वाणव्यन्तरों तथा ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। वैमानिक देवों में उत्पन्न होता हुआ पुलाक जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में उत्पन्न होता है।
७४. बउसे णं०? एवं चेव, नवरं उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे। [७४] बकुश के विषय में भी इसी प्रकार जानना; किन्तु वह उत्कृष्टतः अच्युतकल्प में उत्पन्न होता है। ७५. पडिसेवणाकुसीले जहा बउसे। [७५] प्रतिसेवना-कुशील की वक्तव्यता भी बकुश के समान जाननी चाहिए।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८९७
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३३७५