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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ९२. एवं सिणायस्स वि। [९२] इसी प्रकार स्नातक के विषय में समझना चाहिए।
९३. एएसिणं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणा-कसायकुसील-नियंठ-सिणायाणं संजमठाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ?
गोयमा ! सव्वत्थोवे नियंठस्स सिणायस्स य एगे अजहन्नमणुक्कोसए संजमठाणे। पुलागस्स संजमठाणा असंखेजगुणा। बउसस्स संजमठाणा असंखेजगुणा। पडिसेवणाकुसीलस्स संजमठाणा असंखेजगुणा। कसायकुसीलस्स संजमठाणा असंखेजगुणा। [ दारं १४]
[९३ प्र.] भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, इनके संयमस्थानों में, किसके संयमस्थान किमके संयमस्थानों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
[९३ उ.] गौतम ! निर्ग्रन्थ और स्नातक का संयमस्थान अजघन्य-अनुत्कृष्ट एक ही है और सबसे अल्प है। इनसे पुलाक के संयमस्थान असंख्यातगुणा हैं। उनसे बकुश के संयमस्थान असंख्यातगुणा हैं, उनसे प्रतिसेवनाकुशील के संयमस्थान असंख्यातगुणा हैं और उनसे कषायकुशील के संयमस्थान असंख्यातगुणा हैं।
- [चौदहवाँ द्वार] विवेचन–संयमस्थानों की गणना और अल्पबहुत्व—पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के संयमस्थान असंख्यात हैं। संयमस्थान कहते हैं—चारित्र के स्थान अर्थात् शुद्धि की प्रकर्षताअप्रकर्षता-कृत भेद को। वे असंख्य होते हैं। उनमें प्रत्येक. संयमस्थान के समस्त आकाशप्रदेशों को सर्वआकाशप्रदेशों से गुणा करने पर जितने अनन्तानन्त पर्याय (अंश) होते हैं, उतने एक संयमस्थान के पर्याय होते हैं। पुलाक के ऐसे संयमस्थान असंख्य होते हैं, क्योंकि चारित्र-मोहनीय का क्षयोपशम विचित्र होता है। इसी प्रकार बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के संयमस्थानों के विषय में भी जानना चाहिए। निर्ग्रन्थ और स्नातक का संयमस्थान तो एक ही होता है, क्योंकि कषाय का परिपूर्ण क्षय या उपशम एक ही प्रकार का होता है। अतः उसकी शुद्धि भी एक ही प्रकार की होती है। एक होने के कारण ही उसका संयमस्थान भी एक ही होता है। अत: संयमस्थान के अल्पबहुत्व-सूत्र में कहा गया है कि निर्ग्रन्थ और स्नातक का संयमस्थान एक ही होने से सबसे अल्प है। पुलाक आदि के संयमस्थान क्रमशः क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उत्तरोत्तर असंख्य-असंख्यगुणे होते हैं। पन्द्रहवाँ निष्कर्ष (सन्निकर्ष) द्वार : पांचों प्रकार के निर्ग्रन्थों में अनन्तचारित्रपर्याय
९४. पुलागस्स णं भंते ! केवतिया चरित्तपजवा पन्नत्ता ? गोयमा ! अणंता चरित्तपजवा पन्नता। [९४ प्र.] भगवन् ! पुलाक के चारित्र-पर्यव कितने होते हैं ? [९४ उ.] गौतम ! पुलाक के चारित्र-पर्यव अनन्त होते हैं।
१. भगवत. अ. वृत्ति, पत्र ८९८