Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-३]
[३१७ अनादि-सपर्यवसित हैं और कदाचित् अनादि-अपर्यवसित हैं ।
९३. पाईणपडीणायताओ दाहिणुत्तरायताओ य एवं चेव, नवरं नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, सिय सादीयाओ अपज्जवसियाओ, सेसं तं चेव।
[९३] पूर्व-पश्चिम लम्बी और दक्षिण-उत्तर लम्बी अलोकाकाश-श्रेणियाँ भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। किन्तु इनमें विशेषता यह है कि ये सादि-सपर्यवसित नहीं हैं और कदाचित् सादि-अपर्यवसित हैं। शेष सब पूर्ववत् है।
९४. उड्डमहायताओ जहा ओहियाओ तहेव चउभंगो। [९४] ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणियों के औधिक श्रेणियों के समान चार भंग जानने चाहिए।
विवेचन श्रेणियों में सादि-अनादित्व प्ररूपणा—किसी भी प्रकार के विशेषण से रहित सामान्य श्रेणियों में चार भंगों में से अनादि-अपर्यवसित भंग पाया जाता है, शेष तीन भंग नहीं पाए जाते। लोकाकाश की श्रेणियों में 'सादि-सपर्यवसित' भंग पाया जाता है, क्योंकि लोकाकाश परिमित है। अलोकाकाश की श्रेणियों में चारों भंगों का सद्भाव बताया गया है। वह यों घटित हो सकता है—मध्यलोकवर्ती क्षुल्लकप्रतर के समीप आई हुई ऊर्ध्व-अधो लम्बी श्रेणियों की अपेक्षा प्रथम भंग-'सादि-सान्त' बनता है। लोकान्त से प्रारम्भ होकर चारों ओर जाती हुई श्रेणियों की अपेक्षा द्वितीय भंग-'सादि-अनन्त' बनता है। लोकान्त के निकट सभी श्रेणियों का अन्त होने से उनकी अपेक्षा तृतीय भंग-'अनादि-सान्त' घटित होता है। लोक को छोड़कर जो श्रेणियाँ हैं, उनकी अपेक्षा चतुर्थ भंग-'अनादि-अनन्त' घटित होता है। ___ अलोक में तिरछी श्रेणियों का सादित्व होने पर भी सपर्यवसितत्व (सान्त) न होने से प्रथम भंग घटित नहीं होता, शेष तीन भंग घटित होते हैं। सामान्य श्रेणियों तथा लोक-अलोकाकाशश्रेणियों में द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कृतयुग्मादिप्ररूपणा
९५. सेढीओ णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं कडजुम्माओ, तेओयाओ० पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्माओ, नो तेयायाओ, नो दावरजुम्माओ, नो कलियोगाओ।
[९५ प्र.] भगवन् ! आकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म हैं, त्र्योज हैं, द्वापरयुग्म हैं अथवा कल्योज हैं ?
[९५ उ.] गौतम ! वे कृतयुग्म हैं, किन्तु न तो त्र्योज हैं, न द्वापरयुग्म हैं और न ही कल्योज हैं। ९६. एवं जाव उड्डमहायताओ। [९६] इसी प्रकार ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणियों तक के विषय में कहना चाहिए। ९७. लोयागाससेढीओ एवं चेव।
[९७] लोकाकाश की श्रेणियाँ भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८६६