Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ गोयमा ! नो. मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होजा। उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अन्नयरं पडिसेवेजा।
[३६-२ प्र.] भगवन् ! यदि वह प्रतिसेवी होता है, तो क्या वह मूलगुण-प्रतिसेवी होता है, या उत्तरगुण-प्रतिसेवी होता है ?
[३६-२ उ.] गौतम ! वह मूलगुणों का प्रतिसेवी नहीं होता, किन्तु उत्तरगुण-प्रतिसेवी होता है। जब वह उत्तरगुणों का प्रतिसेवी होता है तो दस प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का प्रतिसेवी होता है।
३७. पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए। [३७] प्रतिसेवनाकुशील का कथन पुलाक के समान जानना चाहिए। ३८. कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होजा। [३८ प्र.] भगवन् ! कषायकुशील प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी होता है ? [३८ उ.] गौतम ! वह प्रतिसेवी नहीं होता, अप्रतिसेवी होता है। ३९. एवं नियंठे वि। [३९] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में जानना चाहिए। ४०. एवं सिणाए वि।[ दारं ६] ।
[४०] इसी प्रकार स्नातक-सम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए। [छठा द्वार] । _ विवेचन–प्रतिसेवी-अप्रतिसेवी : लक्षण-संज्वलनकषाय के उदय से जो संयम-विरुद्ध आचरण करता है, वह प्रतिसेवी (प्रतिसेवक) है और जो किसी भी दोष का सेवन नहीं करता, वह अप्रतिसेवी है।
मूलगुण-उत्तरगुण—प्राणातिपातविरमणादिरूप पांच महाव्रत साधुवर्ग के लिए मूलगुण कहलाते हैं और अनागत, अतिक्रान्त, कोटि सहित, इत्यादि इस प्रकार के प्रत्याख्यान एवं उपलक्षण से पिण्डविशुद्धि, नौकारसी, पौरसी आदि उत्तरगुण कहलाते हैं। इनमें दोष लगाने वाला साधुवर्ग क्रमश: मूलगुणप्रतिसेवी और उत्तरगुणप्रतिसेवी कहलाता है।'
निष्कर्ष-पुलाक और प्रतिसेवनाकुशील, मूल-उत्तरगुणप्रतिसेवी, बकुश उत्तरगुणप्रतिसेवी तथा कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक अप्रतिसेवी होते हैं।' सप्तम ज्ञानद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में ज्ञान और श्रुताध्ययन की प्ररूपणा
४१. पुलाए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होजा?
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र.८९४
(ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा.७, पृ. ३३६१ २. वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. २ (मू.पा.टि.). पृ. १०२२