Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-६]
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आठवाँ तीर्थद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में तीर्थ-अतीर्थ-प्ररूपणा
५३. पुलाए णं भंते ! किं तित्थे होजा, अतित्थे होजा? गोयमा ! तित्थे होजा, नो अतित्थे होज्जा। [५३ प्र.] भगवन् ! पुलाक तीर्थ में होता है या अतीर्थ में होता है ? [५३ उ.] गौतम ! वह तीर्थ में होता है, अतीर्थ में नहीं होता है। . ५४. एवं बउसे वि, पडिसेवणाकुसीले वि। [५४] इसी प्रकार बकुश एवं प्रतिसेवनाकुशील का कथन भी समझ लेना चाहिए। ५५.[१] कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! तित्थे वा होजा, अतित्थे वा होज्जा। [५५-१ प्र.] भगवन् ! कषायकुशील तीर्थ में होता है या अतीर्थ में होता है ? [५५-१ उ.] गौतम ! वह तीर्थ में भी होता है और अतीर्थ में भी होता है। [२] जति अतित्थे होज्जा कि तित्थयरे होजा, पत्तेयबुद्धे होजा? गोयमा ! तित्थगरे वा होजा पत्तेयबुद्धे वा होजा। [५५-२ प्र.] भगवन् ! यदि वह अतीर्थ में होता है तो क्या तीर्थंकर होता है या प्रत्येकबुद्ध होता है [५५-२ उ.] गौतम ! वह तीर्थंकर भी होता है, प्रत्येकबुद्ध भी होता है। ५६. एवं नियंठे वि। [५६] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में भी जानना चाहिए। ५७. एवं सिणाए वि।[.दारं ८] [५७] स्नातक के विषय में भी इसी प्रकार समझना। [अष्टम द्वार]
विवेचन–कषायकुशील अतीर्थ में क्यों और कैसे ?–तीर्थंकर जब छद्मस्थ अवस्था में होते हैं, तब कषायकुशील होते हैं; इस अपेक्षा में यहाँ कहा गया है कि कषायकुशील अतीर्थ में भी होते हैं, अथवा जब तीर्थ का विच्छेद हो जाता है, तब दूसरे तीर्थ (अतीर्थ-स्वतीर्थ के अतिरिक्त तीर्थ) में भी अन्यतीर्थीय साधु भी कषायकुशील होता है। इस अपेक्षा से कषायकुशील का अतीर्थ में होना बतलाया गया है । नौवाँ लिंगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में स्वलिंग-अन्यलिंग-गृहीलिंग-प्ररूपणा
५८. पुलाए णं भंते ! किं सलिंगे होजा, अन्नलिंगे होज्जा, गिहिलिंगे होजा? गोयमा ! दव्वलिंग पडुच्च सलिंगे वा होज्जा, अन्नलिंगे वा होजा, गिहिलिंगे वा होजा।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८९४