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________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-६] [४०१ आठवाँ तीर्थद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में तीर्थ-अतीर्थ-प्ररूपणा ५३. पुलाए णं भंते ! किं तित्थे होजा, अतित्थे होजा? गोयमा ! तित्थे होजा, नो अतित्थे होज्जा। [५३ प्र.] भगवन् ! पुलाक तीर्थ में होता है या अतीर्थ में होता है ? [५३ उ.] गौतम ! वह तीर्थ में होता है, अतीर्थ में नहीं होता है। . ५४. एवं बउसे वि, पडिसेवणाकुसीले वि। [५४] इसी प्रकार बकुश एवं प्रतिसेवनाकुशील का कथन भी समझ लेना चाहिए। ५५.[१] कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! तित्थे वा होजा, अतित्थे वा होज्जा। [५५-१ प्र.] भगवन् ! कषायकुशील तीर्थ में होता है या अतीर्थ में होता है ? [५५-१ उ.] गौतम ! वह तीर्थ में भी होता है और अतीर्थ में भी होता है। [२] जति अतित्थे होज्जा कि तित्थयरे होजा, पत्तेयबुद्धे होजा? गोयमा ! तित्थगरे वा होजा पत्तेयबुद्धे वा होजा। [५५-२ प्र.] भगवन् ! यदि वह अतीर्थ में होता है तो क्या तीर्थंकर होता है या प्रत्येकबुद्ध होता है [५५-२ उ.] गौतम ! वह तीर्थंकर भी होता है, प्रत्येकबुद्ध भी होता है। ५६. एवं नियंठे वि। [५६] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में भी जानना चाहिए। ५७. एवं सिणाए वि।[.दारं ८] [५७] स्नातक के विषय में भी इसी प्रकार समझना। [अष्टम द्वार] विवेचन–कषायकुशील अतीर्थ में क्यों और कैसे ?–तीर्थंकर जब छद्मस्थ अवस्था में होते हैं, तब कषायकुशील होते हैं; इस अपेक्षा में यहाँ कहा गया है कि कषायकुशील अतीर्थ में भी होते हैं, अथवा जब तीर्थ का विच्छेद हो जाता है, तब दूसरे तीर्थ (अतीर्थ-स्वतीर्थ के अतिरिक्त तीर्थ) में भी अन्यतीर्थीय साधु भी कषायकुशील होता है। इस अपेक्षा से कषायकुशील का अतीर्थ में होना बतलाया गया है । नौवाँ लिंगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में स्वलिंग-अन्यलिंग-गृहीलिंग-प्ररूपणा ५८. पुलाए णं भंते ! किं सलिंगे होजा, अन्नलिंगे होज्जा, गिहिलिंगे होजा? गोयमा ! दव्वलिंग पडुच्च सलिंगे वा होज्जा, अन्नलिंगे वा होजा, गिहिलिंगे वा होजा। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८९४
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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