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पच्चसिवशतक: उद्देशक-६/
गोयमा! णो सामाइयसंजमे होजा जाव णो सुहुमसंपरायसंजमे होजा, अहक्खायसंजमे होज्जा। [३३ प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ किस संयम में होता है ?
[३३ उ.] गौतम ! वह सामायिकसंयम से लेकर सूक्ष्मसम्पराय तक में नहीं होता, एकमात्र यथाख्यातसंयम में होता है।
३४. एवं सिणाए वि।[ दारं ५] [३४] इसी प्रकार स्नातक के विषय में समझना चाहिए। [पंचम द्वार]
विवेचन—किसमें कौन-सा संयम?—पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों में से पुलाक, बकुश एवं कषायकुशील सामायिक और छेदोपस्थापनिक इन दोप्रकार के संयम (चारित्र) में कषायकुशील सामायिक से लेकर सूक्ष्मसम्पराय तक में, निर्ग्रन्थ एवं स्नातक दोनों एकमात्र यथाख्यातसंयम (चारित्र) में होते हैं। छठा प्रतिसेवनाद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में मूल-उत्तरगुणप्रतिसेवन-अप्रतिसेवन-प्ररूपणा
३५. [१] पुलाए णं भंते ! किं पडिसेवए होजा, अपिडसेवए होजा? गोयमा ! पडिसेवए होजा, नो अपडिसेवए होज्जा। [३५-१ प्र. भगवन् ! पुलाक प्रतिसेवी (दोषों का सेवन करने वाला) होता है या अप्रतिसेवी होता है ? [३५-१ उ.] गौतम ! पुलाक प्रतिसेवी होता है, अप्रतिसेवी नहीं होता है। [२] जदि पडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ?
गोयमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए वा होजा। मूलगुणपडिसेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अनयरं पडिसेवेजा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अन्नयरं पडिसेवेजा।
[३५-२ प्र.] भगवन् ! यदि वह प्रतिसेवी होता है, तो क्या वह मूलगुण-प्रतिसेवी होता है, या उत्तरगुण-प्रतिसेवी होता है?
[३५-२ उ.] गौतम! वह मूलगुण-प्रतिसेवी भी होता है, उत्तरगुण-प्रतिसेवी भी। यदि वह मूलगुणों का प्रतिसेवी होता है तो पांच प्रकार के आश्रवों में से किसी एक आश्रव का प्रतिसेवन करता है और उत्तरगुणों का प्रतिसेवी होता है तो दस प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का प्रतिसेवन करता है।
३६.[१] बउसे णं० पुच्छा गोयमा ! परिसेवए होजा, नो अपडिसेवए होज्जा। [३६-१ प्र.] भगवन् ! बकुश प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी होता है ? [३६-१ उ.] गौतम ! वह प्रतिसेवी होता है, अप्रतिसेवी नहीं होता है।
[२] जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होजा? १. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मू. पा. टि.) भा. २. पृ. १०२१