Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
पच्चीसवां शतक : उद्देशक-४]
[३३९ ७५. जीवे णं भंते ! मतिअन्नाणपज्जवेहिं किं कडजुम्मे० ? जहा आभिणिबोहियनाणपजवेहिं तहेव दो दंडगा। [७५ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव मतिअज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न। [७५ उ.] आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों के समान यहाँ भी दो दण्डक कहने चाहिए। ७६. एवं सुयअन्नाणपजवेहिं वि।। [७६] इसी प्रकार श्रृंतअज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। ७७. एवं विभंगनाणपज्जवेहिं वि। [७७] विभंगज्ञान के पर्यायों का कथन भी इसी प्रकार है।
७८. चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण-ओहिदंसणपजवेहि वि एवं चेव, नवरं जस्स जे अत्थि तं भाणियव्वं।
[७८] चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु जिसमें जो पाया जाता है, वह कहना चाहिए।
७९. केवलदंसणपजवेहिं जहा केवलनाणपज्जवहिं। [७९] केवलदर्शन के पर्यायों का कथन केवलज्ञान के पर्यायों के समान जानना चाहिए।
विवेचन-ज्ञान, अज्ञान और दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपण-आवरण के क्षयोपशम की विचित्रता के कारण आभिनिबोधिकज्ञान की विशेषताओं को तथा उसके सूक्ष्म अविभाज्य अंशों को 'आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय' कहते हैं। वे अनन्त हैं, किन्तु क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उनका अनन्तत्व अवस्थित नहीं है । अतएव भिन्न-भिन्न समय की अपेक्षा वे चारों राशि रूप होते हैं। यही बात अन्य ज्ञान, अज्ञान और दर्शन के विषय में जाननी चाहिए। एकेन्द्रिय जीव में सम्यक्त्व न होने से उनमें आभिनिबोधिक, श्रुत एवं अवधिज्ञान नहीं होता, न विकलेन्द्रियों में अवधिज्ञान होता है । इसलिए आभिनिबोधिक एवं श्रुतज्ञान के विषय में एकेन्द्रिय का और अवधिज्ञान के विषय में विकलेन्द्रिय का निषेध किया गया है।
सभी जीवों की अपेक्षा आभिनिबोधिकज्ञान के सभी पर्यायों को एकत्रित किया जाए तो सामान्या देश से भिन्न-भिन्न काल की अपेक्षा वे चारों राशिरूप होते हैं, क्योंकि क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उसके पर्याय अनन्त होने पर भी अवस्थित होते हैं। विशेषादेश से एक काल में भी चारों राशिरूप होते हैं। केवलज्ञान के पर्यायों का अनन्तत्व अवस्थित होने से वे कृतयुग्म-राशि-रूप ही होते हैं। केवलज्ञान के पर्याय अविभागपरिच्छेद (अविभाज्य-अंश) रूप होते हैं। इसलिए वे एक ही प्रकार के हैं। उनमें विशेषता नहीं होती। प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक शरीर सम्बन्धी विवरण
८०. कति णं भंते ! सरीरगा पन्नत्ता ?
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८७६, ८७७