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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-४]
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[५९] (यहाँ से लेकर) वैमानिकों तक इसी प्रकार का कथन समझना चाहिए।
६०. एवं नीलवण्णपज्जवेहि वि दंडओ भाणियव्वो एगत्त-पुहत्तेणं। ___ [६०] इसी प्रकार एकवचन और बहुवचन नीले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा भी वक्तव्यता कहनी चाहिए।
६१. एवं जाव लुक्खफासपज्जवेहिं।
[६१] इसी प्रकार यावत् (शेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श के) रूक्ष स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा भी पूर्ववत् कथन करना चाहिए।
विवेचन—वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपण-जीव-प्रदेश अमूर्त-अरूपी होते हैं, इसलिए उनमें कालादि वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्याय नहीं होते, परन्तु शरीर-विशिष्ट जीव का ग्रहण होने से शरीर के वर्णादि की अपेक्षा सामान्य एवं विशिष्ट जीव में कृतयुग्मादि चारों प्रकार की राशियों का व्यवहार हो सकता है। यहाँ सिद्ध-जीव के विषय में कृतयुग्मादि प्रश्न का निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि सिद्ध अमूर्त-अरूपी हैं। अतएव उनमें वर्णादि चारों होते ही नहीं हैं।' जीव, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में ज्ञान-अज्ञान-दर्शनपर्यायों की अपेक्षा एकत्वबहुत्वदृष्टि से कृतयुग्मादि प्ररूपणा
६२. जीवे णं भंते ! आभिणिबोहियनाणपज्जवेहिं किं कडजुम्मे० पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे।
[६२ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न।
[६२ उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज है। ६३. एवं एगिदियवजं जाव वेमाणिए। [६३] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। ६४. जीवा णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवेहिं० पुच्छा।
गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगा वि।
[६४ प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म हैं ? इत्यादि
प्रश्न।
[६४ उ.] गौतम ! ओघादेश से वे कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं। विधानादेश से
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८७६