Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _[१७३] शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों की वक्तव्यता वर्गों के समान है।
विवेचन क्षेत्रापेक्षया पुद्गलचिन्तन–परमाणु कल्योजप्रदेशावगाढ़ ही होता है, क्योंकि वह एक होता है। द्विप्रदेशीस्कन्ध परिणाम विशेष के कारण कभी द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ़ होता है, कभी कल्योजप्रदेशावगाढ़ होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी स्वयं चिन्तन कर लेना चाहिए। बहुत से परमाणु ओघत: (सामान्यापेक्षा) सकल लोकव्यापी होने के कारण कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़ होते हैं। सकल लोक के प्रदेश असंख्यात हैं और वे अवस्थित हैं, इसलिए उनमें चतुरग्रता घटित होती है। विधानतः (एक-एक परमाणु की अपेक्षा) सभी परमाणु एक-एक आकाशप्रदेश में अवगाढ़ होने से कल्योज-प्रदेशावगाढ़ हैं। द्विप्रदेशावगाढ़ स्कन्ध सामान्यत: पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार चतुरग्र (कृतयुग्म) हैं। विधान (प्रत्येक) की अपेक्षा जो द्विप्रदेशावगाढ़ हैं, वे द्वापरयुग्म हैं और जो एक प्रदेशावगाढ़ हैं, वे कल्योज हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी विचार कर लेना चाहिए।
स्पर्शविषयक अतिदेश का आशय यहाँ कर्कशस्पर्श के अधिकार में अनन्तप्रदेशीस्कन्ध के ' विषय में ही कृतयुग्मादि-सम्बन्धी प्रश्न किया गया है, इसका कारण यह है कि बादर-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध ही
कर्कश आदि चार स्पर्शों वाला होता है, परमाणु पुद्गल आदि नहीं। शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श के विषय में जो वर्णों का अतिदेश किया गया है, उसका कारण यह है कि परमाणु आदि भी शीत-स्पर्शादि वाले होते हैं। इसीलिए मूलपाठ में कहा गया है—'सीय उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वंण्णा।' परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक यथायोग्य सार्द्ध-अनर्द्ध प्ररूपणा
१७४. परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सड्ढे अणड्ढे ? गोयमा ! नो सड्ढे अणड्ढे। [१७४ प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल सार्द्ध (आधे भाग-सहित) है या अनर्द्ध (आधे भाग से रहित) है ? [१७४ उ.] गौतम ! वह सार्द्ध नहीं है, अनर्द्ध है। १७५. दुपएसिए० पुच्छा। गोयमा ! सड्ढे, नो अणड्ढे । [१७५ प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध सार्द्ध है या अनर्द्ध है ? [१७५ उ.] गौतम ! वह सार्द्ध है, अनर्द्ध नहीं। १७६. तिपएसिए जहा परमाणुपोग्गले। [१७६] त्रिप्रदेशीस्कन्ध का कथन परमाणु-पुद्गल के समान है। १७७. चउपएसिए जहाँ दुपएसिए।
भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८८३ वहीं, अ. पत्र ८८३