Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-३]
[३११ ६०. आयता णं भंते ! संठाणा० पुच्छा।
गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलिओगपदेसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि।
[६० प्र.] भगवन् ! (अनेक) आयत-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़ होते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
[६० उ.] गौतम ! वे ओघादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़ होते हैं किन्तु न तो त्र्योज-प्रदेशावगाढ़ होते हैं, न ही द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ़ होते हैं और न कल्योज-प्रदेशावगाढ़ होते हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ भी होते हैं, यावत् कल्योज-प्रदेशावगाढ भी होते हैं।
विवेचन—परिमण्डलादि संस्थानों का अवगाहनसम्बन्धी निरूपण-अवगाह के विषय मे कथन करते हुए परिमण्डल-संस्थान बीस प्रदेशावगाढ़ बताया गया है। बीस में चार का अपहार करते हुए चार शेष रहते हैं, अत: वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़ होता है। इसी प्रकार आगे भी कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़ योजप्रदेशावगाढ़, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ़ और कल्योज-प्रदेशावगाढ़ के विषय में भी यथायोग्य समझना चाहिए।
परिमण्डल आदि संस्थानों का पहले एकवचन-सम्बन्धी विचार किया गया है, बाद में बहुवचनसम्बन्धी निरूपण है। उसमें भी ओघादेश और विधानादेश—ये दो भेद किए गए हैं। सामान्यतः सर्वसमुदायरूप कथन 'ओघादेश' है और पृथक्-पृथक् विचार 'विधानादेश' है। इसके कथन में जो कृतयुग्म आदि का परिमाण बनता है, वह वस्तुस्वरूप होने से उस-उस प्रकार का कृतयुग्म, त्र्योज आदि का परिमाण बनता है।
इस प्रकरण के सू. ५१ से ६० तक में एकवचन-बहुवचन की अपेक्षा से पंच संस्थानों का क्षेत्र सम्बन्धी विचार किया गया है। परिमण्डलादि संस्थानों में कृतयुग्मादि समयस्थिति की प्ररूपणा
६१. परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मसमयद्वितीए, तेयोगसमयद्वितीए, दावरजुम्मसमयट्ठितीए, कलियोगसमयट्ठितीए ? ' गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयद्वितीए जाव सिय कलियोगसमयद्वितीए।
[६१ प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, त्र्योज-समय की स्थिति वाला है, द्वापरयुग्म-समय की स्थिति वाला है या कल्योज-समय की स्थिति वाला है ?
[६१ उ.] गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, यावत् कदाचित् कल्योज-समय की स्थिति वाला है।
६२. एवं जाव आयते। [६२] इस प्रकार यावत् आयत-संस्थान पर्यन्त जानना।
६३. परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मसमयद्वितीया० पुच्छा। १. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३१३७-३८