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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, इस कथन का आशय यह है कि उपयोगपूर्वक वैक्रियशरीर धारण करने वाला जीव प्रायः पंचेन्द्रिय ही होता है और वह त्रसनाड़ी के मध्यभाग में होता है। इसलिए उसके छहों दिशाओं का आहार सम्भव है। कुछ आचार्यों के मतानुसार-त्रसनाड़ी के बाहर भी वायुकाय के वैक्रियशरीर होता है, किन्तु अप्रधानता के कारण उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। कुछ • आचार्यों का मत है कि तथाविध लोकान्त के निष्कुटों (कोणों) में वैक्रियशरीरी वायु नहीं होती।
तैजसशरीर जीव के द्वारा अवगाढ क्षेत्र के भीतर रहे हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, उससे बाहर रहे हुए द्रव्यों को नहीं, क्योंकि उन्हें खींचने का स्वभाव उसमें नहीं है। अथवा वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं, क्योंकि उसका स्वभाव इसी प्रकार का होता है।
चौदह दण्डक : चौदह पद—यहाँ पांच शरीर, पांच इन्द्रियाँ, तीन योग और श्वासोच्छ्वास; ये १४ पद हैं । इन चौदह पद-सम्बन्धी १४ दण्डक हैं, जिनका कथन यथायोग्य रूप से किया गया है। इसीलिए यहाँ कहा गया है—'केयि चउवीसदंडएणं.............।
॥ पच्चीसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण॥
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२.
भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५७ वही, पत्र ८५८ वही, पत्र ८५८