Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनन्त हैं, द्वीन्द्रिय यावत् वैमानिक असंख्यात हैं तथा सिद्ध अनन्त हैं। इस कारण कहा जाता है कि यावत् जीवद्रव्य अनन्त हैं।
विवेचन-प्रज्ञापनासूत्र का अतिदेश—यहाँ जो प्रज्ञापनासूत्र के पांचवें पद का अतिदेश किया गया है, वहाँ पांचवें पद में जीवपर्यव के पाठ हैं, वैसे अजीवपर्यव के पाठ भी हैं । यथा—(प्र.) भगवन् ! अरूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? (उ.) गौतम ! वे दस प्रकार के कहे गए हैं। यथा—धर्मास्तिकाय......... इत्यादि तथा (प्र.) रूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? (उ.) गौतम ! वे चार प्रकार के कहे गए हैं। यथा—स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु। (प्र.) भगवन् ! अजीवद्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त ? (उ.) गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं। (प्र.) भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि रूपी अजीवद्रव्य संख्यात, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं ? (उ.) गौतम ! परमाणु अनन्त हैं, द्विप्रदेशिक त्रिप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, इसलिए...............।' जीव और चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की अजीवद्रव्य परिभोगतानिरूपण
४.[१] जीवदव्वाणं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ?
गोयमा ! जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति।
[४-१ प्र.] भगवन् ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, अथवा जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं ?
[४-१ उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते।
[२] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति—जाव हव्वमागच्छंति ?
गोयमा ! जीवदव्वा णं अजीवदव्वे परियादियंति, अजीवदव्वे परियादिइत्ता ओरालियं वेउब्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं सोतिदिय जाव फासिदिय मणजोग वइजोग कायजोग आणापाणुत्तं च निव्वत्तयंति, से तेणटेणं जाव हव्वमागच्छंति। __[४-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि यावत्-(जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग के रूप में) नहीं आते ?
[४-२ उ.] गौतम ! जीवद्रव्य, अजीवद्रव्य को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण—इन पांच शरीरों के रूप में, श्रोतेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय—इन पांच इन्द्रियों के रूप में, मनोयोग, वचनयोग और काययोग तथा श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणमाते (निष्पन्न करते) हैं। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य,
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५५-५६ (ख) प्रज्ञापनापद ५, सू. ५०१-३, पृ. १५१ (मा. वि. प्रकाशन)