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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रकार है)-सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में एक पद्मलेश्या तथा लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार में एक शुक्ललेश्या होती है। वेद-ये स्त्रीवेद और नपुंसकवेदी नहीं होते, केवल पुरुषवेदी होते हैं । (प्रज्ञापनासूत्र के चतुर्थ) स्थितिपद के अनुसार आयु (स्थिति) और अनुबन्ध जानना चाहिए। शेष सब ईशानदेव के समान कहना चाहिए। कायसंवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरने
लगे।
विवेचन–स्पष्टीकरण-(१) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में आठवें देवलोक से आकर उत्पन्न होते हैं। इनके परिणाम, संहनन आदि की वक्तव्यता पूर्ववत् समझना चाहिए। भवादेश आदि के लिए भी पूर्ववत् अतिदेश किया गया है। (२) अवगाहना—प्रज्ञापनासूत्र के २१ वें पद के अनुसार इस प्रकार है
'भवण-वण-जोइ-सोहम्मीसाणे सत्त हुंति रयणीओ।
एक्केक्क-हाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्के य॥' अर्थात्-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म और ईशान देवलोक में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट सात रत्नि (हाथ) है। सनत्कुमार और माहेन्द्र में ६ रत्नि है। ब्रह्मलोक और लान्तक में ५ रनि, महाशुक्र और सहस्रार में ४ रत्नि तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत में तीन रनि की अवगाहना होती है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना सभी देवलोकों में जघन्य अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है। (३) स्थिति सभी की भिन्न-भिन्न है, जिसका निर्देश अन्यत्र किया जा चुका है। स्थिति के अनुसार उपयोगपूर्वक संवेध जान लेना चाहिए।
॥ चौवीसवाँ शतक : वीसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण॥
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१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८४२ २. (क) वही, पत्र ८४२
(ख) पण्णवणासुत्तं, भा. १. सू. १५३२/५, पृ. ३४१ (महावीरविद्यालय प्रकाशन)