Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[ २८५ - [८ प्र.] भगवन् ! योग कितने प्रकार का कहा गया है ?
[८ उ.] गौतम ! योग पन्द्रह प्रकार का कहा गया है। यथा—(१) सत्य-मनोयोग, (२) मृषामनोयोग, (३) सत्यमृषा-मनोयोग, (४) असत्यामृषा-मनोयाग, (५) सत्य-वर्चनयोग, (६) मृषा-वचनयोग, (७) सत्यमृषा-वचनयोग, (८) असत्यामृषा-वचनयोग, (९) औदारिकशरीर-काययोग, (१०) औदारिकशरीरमिश्रशरीर-काययोग, (११) वैक्रियशरीर-काययोग, (१२) वैक्रियमिश्र-शरीरकाययोग, (१३) आहारकशरीर-काययोग, (१४) आहारकमिश्रशरीर-काययोग और (१५) कार्मण-शरीर-काययोग।
विवेचन—योग : परिभाषा और प्रकार-पूर्व सूत्रों में प्रयुक्त 'योग' शब्द परिस्पन्दन (हलचल) अर्थ में है जबकि यहाँ 'योग' पारिभाषिक शब्द है, जो मन, वचन और काया से होने वाली चेष्टा (व्यापार) या प्रवृत्ति के अर्थ में है। ये योग ४ मन के निमित्त से, ४ वचन के निमित्त से और ७ काय के निमित्त से होते हैं, इसलिए वे १५ प्रकार के कहे गये हैं। पन्द्रह प्रकार के योगों में जघन्य-उत्कृष्ट योगों का अल्पबहुत्व
९. एयस्स णं भंते ! पन्नरसविहस्स जहन्नुक्कोसगस्स जोगस्स कयरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा?
गोयमा ! सव्वत्थोवे कम्मगसरीरस्स जहन्नए जोय १, ओरालियमीसगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे २, वेउव्वियमीसगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ३, ओरालियसरीरस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ४, वेउब्वियसरीरस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ५, कम्मगसरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे ६, आहारगमीसगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ७, तस्स चेव उक्कोसए जोए असंखेजगुणे ८, ओरालियमीसगस्स वेउव्विमीसगस्स य एएसि णं उक्कोसए जोए दोण्ह वि तुल्ले असंखेजगुणे ९-१०, असच्चामोसमणजोगस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे ११, आहारगसरीरस्स जहन्नए जोए असंखेजगुणे १२, तिविहस्स मणजोगस्स, चउव्विहस्स वइजोगस्स, एएसि णं सत्तण्ह वि तुल्ले जहन्नए जोए असंखेजगुणे १३–१९; आहारगसरीरस्स उक्कोसोए जोए असंखेजगुणे २०, ओरालियसरीरस्स वेउब्वियसरीरस्स चउव्विहस्स य मणजोगस्स, चउब्विहस्स य वइजोगस्स, एएसि णं दसण्ह वि तुल्ले उक्कोसए जोए असंखेजगुणे २१-३०। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः ।।
॥ पंचवीसइमे सते : पढमो उद्देसो समत्तो॥ २५-१॥ [९ प्र.] भगवन् ! इन पन्द्रह प्रकार के योगों में, कौन किस योग से जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अल्प,
१. (क) पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. ३६३
(ख) वियाहपएणत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. २, पृ. ९७१