Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
तो असंख्यातवाँ भाग अधिक, संख्यातवाँ भाग अधिक, संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होता है। इस कारण से कहा गया है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी भी होता है।
७. एवं जाव वेमाणियाणं ।
[७] इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए।
विवेचन—प्रथम समयोत्पन्नक—नरकक्षेत्र में प्रथम समय में उत्पन्न नैरयिक 'प्रथम समयोत्पन्नक' कहलाता है। इस प्रकार के दो नारक, जिनकी उत्पत्ति विग्रहगति से, अथवा ऋजुगति से आकर, अथवा एक की विग्रहगति से और दूसरे की ऋजुगति से आकर हुई है, वे भी 'प्रथम - समयोत्पन्नक' कहलाते हैं।'
समयोगी - विषमयोगी — जिन दो जीवों के योग समान हों, वे 'समयोगी' और जिनके विषम हों, वे 'विषमयोगी कहलाते हैं।
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हीनयोगी, अधिकयोगी और तुल्ययोगी कौन और कैसे ? – आहारक नारक की अपेक्षा अनाहारक नारक हीन योग वाला होता है, क्योंकि जो नारक ऋजुगति से आकर आहारक रूप से उत्पन्न होता है, वह निरन्तर आहारक होने के कारण पुद्गलों से उपचित (वृद्धिंगत) होता है, इस कारण अधिक योग वाला होता है। जो नारक विग्रहगति से आकर अनाहारक रूप उत्पन्न होता है, वह अनाहारक होने से पुद्गलों से अनुपचित होता है, अतः हीनयोग वाला होता है। जो समान समय की विग्रहगति से आकर अनाहारकरूप से उत्पन्न होते हैं अथवा ऋजुगति से आकर आहारक रूप से उत्पन्न होते हैं, वे दोनों एक दूसरे की अपेक्षा तुल्ययोग वाले होते हैं। जो ऋजुगति से आकर आहारक उत्पन्न हुआ है, और दूसरा विग्रहगति से आकरे अनाहारक उत्पन्न हुआ है, वह उसकी अपेक्षा उपचित होने से 'अत्यधिक विषमयोगी' होता है। सूत्र में हीनता और अधिकता का कथन किया गया है, वह सापेक्ष है। समानधर्मतारूप तुल्यता प्रसिद्ध होने से उसका पृथक् कथन नहीं किया गया है। किन्तु यह ध्यान रहे कि यहाँ परिस्पन्दन रूप योग की ही विवक्षा की गई है। योग के पन्द्रह भेदों का निरूपण
८. कतिविधे णं भंते! जोए पन्नत्ते ?
गोयमा ! पन्नरसविधे जोए पन्नत्ते तं जहा - सच्चमणजोए मोसमणजोए सच्चामोसमणजोए असच्चामोसमणजोए, सच्चवइजोए मोसवइजोए सच्चामोसवइजोए असच्चामोसवइजोए, ओरालियसरीरकायजोए ओरालियमीसासरीरकायजोए वेडव्वियसरीरकायजोए वेउव्वियमीसासरीरकायजोए आहारगसरीरकायजोए आहारगमीसासरीरकायजोगे, कम्मसरीरकायजोए १५ ।
१. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३२०१
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५४
२. वही, पत्र ८५४
३. (क) वही, पत्र ८५४
(ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३२०१ - ३२०२