Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र असंख्यातगुना है, और २८. उससे भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है।
विवेचन-जघन्य योग, उत्कृष्ट योग तथा अल्पबहुत्व-आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन (हलचल या कम्पन) को 'योग' कहते हैं । वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशमादि की विचित्रता के कारण योग के पन्द्रह भेद होते हैं, जिनका विवेचन आगे सू. ८ में किया जाएगा। किसी-किसी जीव का योग, दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य (अल्प) होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है। जीवों के उपर्युक्त चौदह भेदों से सम्बन्धित प्रत्येक के जघन्य और उत्कृष्ट योग होने से २८ भेद होते हैं। यहाँ जीवों का अल्पबहुत्व न कह कर योगों के अल्पबहत्त्व का कथन किया गया है। इनमें सबसे अल्प. सक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय का जघन्य-योग है. क्योंकि उन जीवों का शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त (अपूर्ण) होने के कारण दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उनका योग सबसे अल्प होता है और वह भी कार्मण शरीर द्वारा औदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में ही होता है । तत्पश्चात् समय-समय पर योग में वृद्धि होती है, जो उत्तरोत्तर उत्कृष्ट योग तक बढ़ता है। पूर्वोक्त सूक्ष्म अपर्याप्त की अपेक्षा अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग असंख्यातगुणा होता है। बादर होने के कारण उसका योग असंख्यातगुणा बड़ा होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए।'
यद्यपि पर्याप्त त्रीन्द्रिय की उत्कृष्ट काया की अपेक्षा पर्याप्तक द्वीन्द्रियों की काया तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट काया, संख्यात योजन होने से असंख्यातगुण ही होती है, तथापि यहाँ परिस्पन्दनरूप योग की विवक्षा होने से तथा क्षयोपशम-विशेष की सामर्थ्य से असंख्यातगुण होने का कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प हो और महाकाय वाले का परिस्पन्दन बहुत हो, क्योंकि इससे विपरीत भी दृष्टिगोचर होता है । अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन महान् भी होता है और महाकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प भी होता है।
आगे हम जघन्य और उत्कृष्ट योग के अल्पबहुत्व का यंत्र भी दे रहे हैं, जिससे स्पष्ट प्रतीत हो जाएगा कि महाकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प और अल्पकाय वाले का महान् परिस्पन्दन भी होता है। प्रथम समयोत्पन्नक चतुर्विंशति दण्डकवर्ती दो जीवों का समयोगित्व-विषमयोगित्वनिरूपण
६.[१] दो भंते नेरतिया पढमसमयोववन्नगा किं समजोगी, विसमजोगी ? गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। [६-१ प्र.] भगवन् ! प्रथम समय में उत्पन्न दो नैरयिक समयोगी होते हैं या विषमयोगी? [६-१ उ.] गौतम ! कदाचित् समयोगी होते हैं और कदाचित् विषमयोगी होते हैं।
१. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३२०१
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५३-८५४ २. वही, पत्र ८५३