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पंचवीसइमं सयं : पच्चीसवाँ शतक
प्राथमिक भगवती सूत्र के पच्चीसवें शतक के बारह उद्देशक हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं-(१) लेश्या, (२) द्रव्य, (३) संस्थान, (४) युग्म, (५) पर्यव, (६) निर्ग्रन्थ, (७) श्रमण, (८) ओघ, (९) भव्य, (१०) अभव्य, (११) सम्यक्त्वी और (१२) मिथ्यात्वी। मनुष्य चेतनावान् है। वह अनन्त ज्ञान-दर्शन का धनी है, फिर भी वह स्वयं को अज्ञानग्रस्त एवं हीन मानता है। वह अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्मा होते हुए भी स्वयं को शक्तिहीन समझता है। वह स्वभावत: वीतराग और परम आत्मा होते हुए भी स्वयं को राग-द्वेष से लिप्त, कषाययुक्त और अपरम आत्मा मानता है। वह अपनी शक्तियों एवं उपलब्धियों से अपरिचित है। असीम और अनन्त होते हुए भी स्वयं को ससीम और सान्त समझता है । कौन-से ऐसे बाधक तत्त्व हैं, जो साधक की शक्ति और उपलब्धि को सीमित कर देते हैं ? कौन-से ऐसे बाधक तत्त्व हैं, जो शरीर के भीतर बैठे हुए अनन्त चैतन्य को प्रकट नहीं होने देते? आत्मा की शुद्धता-उज्ज्वलता तथा परमात्मसम्पन्नता को रोके हुए हैं ? तथा किन तत्त्वों ने उसे मोक्ष-प्राप्ति के लक्ष्य से दूर भटका दिया है और संसार के जन्म-मरण के बन्धनों में उसे बांध रखा है ? उनसे कैसे छुटकारा मिल सकता है ? और कैसे साधक अपने चरम लक्ष्य—मोक्ष को प्राप्त कर सकता है ? आत्मा को उज्ज्वल, शुद्ध और कर्मयुक्त बना सकता है ? ये और इन्हीं प्रश्नों का समाधान इस शतक में निहित है। प्रथम उद्देशक में लेश्याओं का प्रतिपादन किया है, जो कषाय से अनुरंजित होने के कारण मनुष्य को लक्ष्य से भटका देती हैं, संसार-सागर से पार होने में बाधक बनती हैं । यद्यपि आत्मा अपने आप में परम शुद्ध है, तथापि लेश्या, चाहे वह शुक्ललेश्या ही क्यों न हो, जब तक रहती हैं, तब तक वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता, वह संसारी बना रहता है। इसलिए इसी उद्देशक में संसार-समापन्नक जीवों की सूची दे दी है, ताकि मुमुक्षु जीव यह समझ सके कि जब तक लेश्या, योग आदि हैं, तब तक वह संसारी ही कहलाएगा, साथ ही पन्द्रह प्रकार के योगों का तारतम्य एवं अल्पबहुत्व बताया गया है, ताकि साधक अपने योगों का नापतौल कर सके। इस पाठ से यह भी ध्वनित कर दिया है कि साधक अपनी आत्मशक्तियों का विकास कर ले तो योगों के कम्पनों के प्रभाव को रोक सकता