Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समय की स्थिति की तथा आत्मप्रदेशों और शरीरप्रदेशों की अपेक्षा से कृतयुग्मादि की प्ररूपणा की है। फिर मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानों के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म आदि की प्ररूपणा की है। इसके पश्चात् जीवों की सकम्पता - निष्कम्पता तथा देशकम्पकता, सर्वकम्पकता की चर्चा की गई है तथा परमाणु पुद्गल, एकप्रदेशावगाढ़, एकसमयस्थितिक तथा एकगुण काले आदि से लेकर संख्यात, असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है, जो मुमुक्षु आत्माओं के लिए श्रद्धापूर्वक ज्ञेय है। एक परमाणु से अनन्त- प्रदेशी स्कन्ध तक के कृतयुग्मादि की पूर्ववत् चर्चा की गई है। परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सार्द्ध - अनर्द्ध की भी सूक्ष्म चर्चा है। जीवों के समान परमाणु आदि की सकम्पता - निष्कम्पता तथा कियत्कालस्थायिता, कियत्काल का अन्तर एवं उनकी सकम्पता, निष्कम्पता व अल्पबहुत्व का निरूपण भी किया गया है । अन्त में धर्मास्तिकाय से लेकर जीवास्तिकाय तक के मध्यप्रदेशों की भी चर्चा हैं ।
पंचम उद्देशक में जीव और अजीव के पर्यवों की प्ररूपणा से प्रारम्भ करके आवलिका से लेकर पुद्गल - परिवर्तन तक के कालसम्बन्धी परिमाण की चर्चा की है। इस चर्चा का उद्देश्य यही संभवित है कि मुमुक्षु साधक अपने अतीत के अनन्तकालिक भवों के लक्ष्यहीन अज्ञानग्रस्त जीवन पर विचार करके भविष्यत्काल को सुधार सके, उज्वल बना सके। इस उद्देशक के अन्त में द्विविध निगोद जीवों तक औदयिक आदि पांच भावों का निरूपण भी किया गया है।
छठे उद्देशक में मोक्षलक्ष्यी पंचविध निर्ग्रन्थ साधक के मार्ग में कौन-कौन से अवरोध या बाधक तत्त्व आ जाते हैं, जो उसकी मोक्ष की ओर की गति को मन्द कर देते हैं, किन साधक तत्त्वों से वह गति बढ़ सकती है ? इस पर ३६ द्वारों के माध्यम से विस्तृत रूप से निरूपण किया गया है। वस्तुतः पांचों प्रकार के निर्ग्रन्थों के आध्यात्मिक विकास के लिए यह तत्त्वज्ञान बहुत ही उपयोगी एवं अनिवार्य है ।
सातवें उद्देशक में सामायिक से लेकर यथाख्यात तक पांच प्रकार के संयतों का यथार्थ स्वरूप प्रथम प्रज्ञापनाद्वार के माध्यम से बताकर उनके मोक्षमार्ग में बाधक - साधक तत्त्वों का भी पूर्वोक्त उद्देशक में कथित ३६ द्वारों के माध्यम से सांगोपांग निरूपण किया गया है। इसके पश्चात् पंचविध निर्ग्रन्थों तथा पंचविध संयतों को संयम में लगे हुए या लगने वाले दोषों की शुद्धि करके आत्मा को विशुद्ध, उज्वल, स्वरूपस्थ, निजगुणलीन बनाने हेतु प्रतिसेवना, आलोचनादोष, आलोचना- योग्य, आलोचना ( सुनकर प्रायश्चित ) देने योग्य गुरु, समाचारी प्रायश्चित और बाह्य-आभ्यन्तर द्वादशविध तप, इन सात विषयों का विशद वर्णन किया गया है।