Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ [१५ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार भवनवासी देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ?
[१५ उ.] गौतम ! वह (असुरकुमार भवनवासी) जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में जो वक्तव्यता कही है, वही वक्तव्यता यहाँ भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि जिस प्रकार वहाँ जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले तिर्यंच में उत्पन्न होने का कहा है, इसी प्रकार यहाँ मासपृथक्त्व की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होने का कथन करना चाहिए। इसके परिमाण में जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, शेष सब पूर्वकथितानुसार जानना चाहिए। इसी प्रकार ईशान देव तक वक्तव्यता कहनी चाहिए तथा ये (उपर्युक्त) विशेषताएं भी जाननी चाहिए। जैसे पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार सनत्कुमार से लेकर सहस्रार तक के देव के सम्बन्ध में कहना चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि उनका परिमाण-जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। उनकी उत्पत्ति जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में होती है। शेष सब पूर्व-कथनानुसार जानना चाहिए। संवेध—(जघन्य) वर्ष पृथक्त्व (और उत्कृष्ट) पूर्वकोटि वर्ष से करना चाहिए।
१६. सणंकुमारे ठिती चउग्गुणिया अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति।माहिंदे ताणि चेव सातिरेगाणि। बंभलोए चत्तालीसं। लंतए छप्पण्णं। महासुक्के अट्ठसटुिं। सहस्सारे बावत्तरि सागरोवमाइं। एसा उक्कोसा ठिती भणिया, जहन्नट्ठिति पि चउगुणेजा।
_[१६] सनत्कुमार में (संवेध) स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम होता है। माहेन्द्र में (संवेध) कुछ अधिक अट्ठाईस सागरोपम होता है। (इसी प्रकार स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर) ब्रह्मलोक में ४० सागरोपम, लान्तक में छप्पन सागरोपम, महाशुक्र में अड़सठ सागरोपम तथा सहस्रार में बहत्तर सागरोपम होता है । यह उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। जघन्य स्थिति को भी चार गुणी 'करनी चाहिए। (यों कायसंवेध कहना चाहिए।) [गमक १ से ९ तक]
१७. आणयदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति०? गोयमा ! जहन्नेणं वासपुहत्तद्वितीएसु उवव०, उक्कोसेणं पुव्वकोडिद्वितीएसु।
[१७ प्र.] भगवन् ! आनतदेव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ?
[१७ उ.] गौतम ! वह (आनतदेव), जघन्य वर्षपृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।
१८. ते णं भंते ! ०?
एवं जहेव सहस्सारदेवाणं वत्तव्वया, नवरं ओगाहणा-ठिति-अणुबंधे य जाणेजा। सेसं तं चेव। भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणइं। कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं सत्तावण्णं सागरोवमाई तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई; एवतियं कालं० । एवं नवं वि गमा, नवरं ठिति अणुबंध संवेहं च जाणेज्जा।