Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-२०]
[२४३ होते हैं, किन्तु आनत (से लेकर) यावत् अच्युत-कल्पोपपन्न-वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं।
विवेचन—निष्कर्ष-संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, कल्पोपपत्रक-वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते है तथा कल्पोपपन्न में भी सौधर्मकल्प से लेकर सहस्रारकल्प तक के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, आगे के आनत से लेकर अच्युत-कल्प के देवों से उत्पन्न नहीं होते हैं। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने वाले सौधर्म से सहस्रारदेव पर्यन्त के उत्पाद-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
६३. सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवति?
गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं पुवकोडिआउएसु। सेसं जहेव पुढविकाइय-उद्देसए नवसु वि गमएसु, नवरं नवसु वि गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। ठिति कालादेसं च जाणेजा।
[६३ प्र.] भगवन् ! सौधर्म देव जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों) में उत्पन्न होता है ?
[६३ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले (संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों) में उत्पन्न होता है। शेष सब नौ ही गमकों से सम्बन्धित वक्तव्यता पृथ्वीकायिक-उद्देशक में कहे अनुसार जानना। परन्तु विशेष यह है कि नौ ही गमकों में (संवेध)-भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। स्थिति और कालादेश भी भिन्न-भिन्न समझना चाहिए।
६४. एवं ईसाणदेवे वि। [६४] इसी प्रकार ईशान देव के विषय में भी जानना चाहिए।
६५. एवं एएणं कमेणं अवसेसा वि जाव सहस्सारदेवेसु उववातेयव्वा, नवरं ओगाहणा जहा ओगाहणसंठाणे। लेस्सा–सणंकुमार-माहिंद-बंभलोएसु एगा पम्हलेस्सा, सेसाणं एगा सुक्कलेस्सा। वेदे—नो इत्थिवेदगा, पुरिसंवेदगा, नो नपुंसगवेदगा। आउ-अणुबंधा जहा ठितिपदे। सेसं जहेव ईसाणगाणं। कायसंवेहं च जाणेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥चउवीसइमे सए : वीसतिमो उद्देसओ समत्तो॥ २४-२०॥ [६५] इसी क्रम में शेष सब देवों का—सहस्रारकल्प पर्यन्त के देवों का उपपात कहना चाहिए। परन्तु अवगाहना, (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) अवगाहना-संस्थान-पद के अनुसार जानना। लेश्या (इस १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. २ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ९५५