Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक - १२]
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प्रज्ञापनासूत्र का अतिदेश— प्रश्न १-२
प्रज्ञापनासूत्र के व्युत्क्रान्ति नामक छठे पद का अतिदेश किया गया है । वहाँ के पाठ का भावार्थ इस प्रकार है— (प्र.) 'भगवन् ! वे एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? ( उ ) गौतम ! वे एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं।"
पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले पृथ्वीकायिक संबंधी उत्पत्ति- परिमाणादि वीस द्वारों की
प्ररूपणा
२. पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएस उववज्जित्तए से णं भंते! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तट्ठितीएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सट्ठितीएसु उववज्जेज्जा । [२ प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ?
[२ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ।
३. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० पुच्छा ।
गोयमा ! अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जंति । सेवट्टसंघयणी, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखेज्जत्तिभाग। मसूराचंदासंठिया । चत्तारि लेस्साओ। नो सम्मद्दिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी । दो अन्नाणा नियमं । नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। उवयोगो दुविहो वि । चत्तारि सण्णाओ । चत्तारि कसाया। एगे फार्सिदिए पन्नत्ते । तिणि समुग्धाया । वेयणा दुविहा । नो इत्थिवेयगा, नो पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा । ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं । अज्झवसाणा पसत्था वि, अपसत्था वि।
बंध जहा ठी ।
[३ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[३ प्र.] गौतम ! वे प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात उत्पन्न होते हैं । वे सेवार्त्तसंहनन वाले होते हैं । उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। उनका संस्थान (आकार) मसूर की दाल जैसा होता है। उनमें चार लेश्याएँ होती हैं। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी ही होते हैं । उनमें दो अज्ञान (मति - अज्ञान और श्रुतअज्ञान ) नियम से होते हैं । वे मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते, काययोगी ही होते हैं । उनमें साकार और अनाकार दोनों उपयोग होते हैं । उनमें चारों संज्ञाएँ, चारों कषाय और एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय होती हैं । उनमें प्रथम के तीन समुद्घात होते हैं, साता और असाता दोनों वेदना होती है। वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते,
१. पण्ण्वणासुत्तं भा. १, छठा व्युत्क्रान्तिपद सू. ६५०, पृ. १७४ (महा. वि. प्रकाशन)