Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२२८]
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववजंति। भवादेसेणं वि नवसु वि गमएसु—भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। सेसं तं चेव। कालाएसेणं उभओ ठिति करेज्जा।
[१३ प्र.] भगवन् ! वे पृथ्वीकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । । [१३ उ.] यहाँ परिमाण से लेकर अनुबन्ध तक, अपने-अपने स्वस्थान में जो वक्तव्यता कही है, तदनुसार ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि नौ ही गमकों में परिमाणजघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, ऐसा जानना। (संवेध—) नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करते हैं। शेष पूर्ववत् । कालादेश से—दोनों पक्षों की स्थिति को जोड़ने से (काल) संवेध जानना चाहिए।
१४. जदि आउकाइएहितो उवव० ? एवं आउकाइयाण वि। [१४ प्र.] भगवन् ! यदि वह (पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) अप्कायिक जीवों से आकर उत्पन्न हो तो? इत्यादि
प्रश्न।
[१४ उ.] पूर्ववत् अप्काय के सम्बन्ध में कहना चाहिए।
१५. एवं जाव चउरिदिया उववाएयव्वा, नवरं सव्वत्थ अप्पणो लद्धी भाणियव्वा। नवसु वि गमएसु भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेणं उभओ ठिति करेजा। सव्वेसि सव्वगमएसु जहेव पुढविकाइएसु उववजमाणाणं लद्धी तहेव। सव्वत्थ ठित संवेहं च जाणेजा।
। [१५] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक उपपात कहना चाहिए; परन्तु सर्वत्र अपनी-अपनी वक्तव्यता कहनी चाहिए। नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा कालादेश से दोनों की स्थिति को जोड़ना चाहिए। जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार सभी गमकों में सभी जीवों के सम्बन्ध में कहनी चाहिए। सर्वत्र स्थिति और संवेध यथायोग्य भिन्नभिन्न जानना चाहिए।
विवेचन—कुछ स्पष्टीकरण : एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-सम्बन्धी—(१) पृथ्वीकायिक जीव, यदि पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो तो प्रतिसमय असंख्यात उत्पन्न होते हैं, किन्तु यदि पृथ्वीकायिक, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो तो जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । (२) संवेध-भव की अपेक्षा से नौ ही गमकों में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं । (३) अप्कायिक से लेकर चतुरिन्द्रिय तक से निकल कर पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होने में परिमाणादि की वक्तव्यता सर्वत्र अपनी-अपनी कहनी चाहिए।'
१. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र ८४०