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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१२]
[१९१ [१७ प्र.] भगवन् ! यदि वे वनस्पतिकायिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो? इत्यादि प्रश्न ।
[१७ उ.] अप्कायिकों के गमकों के समान वनस्पतिकायिकों के नौ गमक कहने चाहिए। वनस्पतिकायिकों का संस्थान अनेक प्रकार का होता है। उनके शरीर की अवगाहना इस प्रकार कही गई है—प्रथम के तीन गमकों और अन्तिम तीन गमकों में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार योजन की होती है। बीच के तीन गमकों में अवगाहना पृथ्वीकायिकों के समान समझनी चाहिए। इसकी संवेध और स्थिति (जो भिन्न है) जान लेनी चाहिए। तृतीय गमक में काल की अपेक्षा से—जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष, उत्कृष्ट एक लाख अट्ठाईस हजार वर्ष, इतने काल तक गमनागमन करता है। इस प्रकार उपयोगपूर्वक संवेध भी कहना चाहिए।
विवेचन-वनस्पतिकायिकों के नौ गमकों का स्पष्टीकरण-(१) वनस्पतिकायिक के नौ गमकों के लिए अप्कायिकगमकों का अतिदेश किया गया है।(२)विशेषताएँ इस प्रकार हैं-वनस्पतिकाय का संस्थान नाना प्रकार का है । वनस्पतिकाय के प्रथम तीन औधिक गमकों में और अन्तिम तीन (७-८-९) गमकों में अवगाहना जघन्य और उत्कष्ट दोनों प्रकार की होती है। जघन्य अंगल के असंख उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार योजन की होती है। बीच के (४-५-६) तीन गमकों में जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है। वनस्पतिकाय की स्थिति जंघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होती है । इसके अनुसार संवेध भी जानना चाहिए। किसी भी पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति के गमकों में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। उनमें से पृथ्वीकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८,००० वर्ष होती है और वनस्पतिकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ४०,००० वर्ष होती है। दोनों को मिलाने से एक लाख अट्ठाईस हजार वर्ष का संवेधकाल होता है। पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले द्वीन्द्रिय जीवों में उपपातादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
१८. जदि बेइंदिएहिंतो उववजति किं पजत्तवेइंदिएहिंतो उववजंति, अपजत्तबेइंदिए हिंतो०?
गोयमा ! पज्जत्तबेइंदिएहिंतो उवव०, अपज्जत्तबेइंदिएहिंतो वि उववजंति।
[१८ प्र.] भगवन् ! यदि वे द्वीन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न हों तो क्या पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों में आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों से?
[१८ उ.] गौतम ! वे पर्याप्त द्वीन्द्रियों से भी तथा अपर्याप्त द्वीन्द्रियों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। १९. बेइंदिए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकाल ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तट्ठितीएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८२६