Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१२६]
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वि उववजंति।
[३-३ प्र.] भगवन् ! यदि वे पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, या असंज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं।
[३-३ उ.] गौतम! वे संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं।
[४] जति सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं जलचरेहिंतो उववजंति, थलचरेहिंतो उववजंति, खहचरेहितो उववजंति?
गोयमा! जलचरेहितो वि उववजंति, थलचरेहितो वि उववजंति, खहचरेहितो वि उववज्जंति।
[३-४ प्र.] भगवन् ! यदि वे (नैरयिक) संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचरों से उत्पन्न होते हैं, या स्थलचरों से अथवा खेचरों से आकर उत्पन्न होते हैं?
[३-४ उ.] गौतम! वे जलचरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, स्थलचरों से भी तथा खेचरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं।
[५] जति जलचर-थलचर-खहचरेहिंतो उववन्जंति किं पज्जत्तएहिं तो उववजंति, अपज्जत्तएहितो उववजंति?
गोयमा! पज्जत्तएहिंतो उववज्जंति, नो अपज्जत्तएहितो उववज्जंति। __ [३-५ प्र.] (भगवन्!) यदि वे जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त (जलचरादि) से अथवा अपर्याप्त (जलचरादि) से आकर उत्पन्न होते हैं? ।
[३-५ उ.] गौतम! वे पर्याप्त (जलचरादि) से (आकर) उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्त (जलचरादि से (आकर) उत्पन्न नहीं होते।
विवेचन—निष्कर्ष-द्वितीय सूत्र में पूछा गया है कि क्या नैरयिक जीव चार गतियों में से आकर (नरक में) उत्पन्न होते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि वे तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति से आकर उत्पन्न होते हैं। इसके पश्चात् तीसरे सूत्र के पांच विभागों के प्रश्नों का उत्तर है-वे तिर्यञ्चगति में से आकर उत्पन्न होते हैं तो सिर्फ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से और उनमें भी जलचर, स्थलचर और खेचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं। प्रथम नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच के विषय में उपपात आदि वीस द्वारों की प्ररूपणा
४. पज्जत्ताअसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते!
१. वियाहपण्णतिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ९०४-९०५