Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक - १]
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सम्बन्धित पूर्ववत् तीन गमक होते हैं, तथा उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव से सम्बन्धित भी पूर्ववत् तीन गमक होते हैं। इस प्रकार ये नौ गमक (आलापक) होते हैं।
पर्याप्त असंज्ञी-तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीव के विषय में वीस द्वार — सूत्र ४ से लेकर २५ दें तक पर्याप्त असंज्ञीतिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीव के विषय में २० द्वार हैं । विवरण इस प्रकार है
उपपात ( उत्पत्ति )—–—–—के विषय में दो प्रश्न किये गए हैं— (१) पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक कितनी नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होता है ? और (२) कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उत्तर स्पष्ट हैं—वह एकमात्र रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है, रत्नप्रभा के नैरयिकों की जघन्य स्थिति १० हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की है । किन्तु पर्याप्त असंज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जो नरक में जाता है, वह पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों तक ही उत्पन्न होता है, इससे आगे नहीं । इसलिए यहाँ उत्कृष्टत: पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले प्रथम नरकीय नारकों तक ही उत्पन्न होना बताया है।
अन्य द्वारों का स्पष्टीकरण – यहाँ से आगे अनुबन्ध तक प्रायः सभी द्वार स्पष्ट हैं । दृष्टिद्वार में इन्हें केवल मिथ्यादृष्टि तथा ज्ञान-अज्ञानद्वार में इन्हें अज्ञानी बताया गया है, परन्तु श्रेणिक महाराज का जीव जो प्रथम नरक में गया है, वह तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा ज्ञानी था । इसका समाधान यह है कि यहाँ पर्याप्त असंज्ञीतिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में से मरकर जो प्रथम नरक में जाता है, उसका कथन है, मनुष्य में से मरकर प्रथम नरक में जाने वाले का कथन नहीं। इसलिए इस कथन में विरोध नहीं है। असंज्ञी की जवन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है, नरक में जाने वाले के अध्यवसायस्थान अप्रशस्त होते हैं, किन्तु आयुष्य की दीर्घस्थिति हो, तो प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय हो सकते हैं। अनुबन्ध आयुष्य के समान ही होता है किन्तु कायसंवेध नैरयिक और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों स्थितियों को मिला कर जानना चाहिए।
कायसंवेध के विषय में स्पष्टीकरण—कायसंवेध का पर भव और काल दोनों अपेक्षाओं से विचार किया गया है। भव की अपेक्षा से दो भव का कायसंवेध इसलिए बताया है कि जो जीव पूर्वभव में असंज्ञीतिर्यंचपंचेन्द्रिय हो और वहाँ से मर कर नरक में उत्पन्न हो तो वह नरक से निकल कर फिर असंज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय नहीं होता, वह अवश्य ही संज्ञीपन प्राप्त कर लेता है ।
काल की अपेक्षा से असंज्ञी - तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का कायसंवेध — जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त आयुष्यसहित, प्रथम नरक की जघन्य १० हजार वर्ष की स्थिति वाला होता है, इसलिए जघन्य कायसंवेध अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का बताया है । उत्कृष्ट कायसंवेध — असंज्ञी के पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्यसहित प्रथम नरक (रत्नप्रभा) में उसका उत्कृष्ट आयुष्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसलिए इन दोनों के
१. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन, पं. घेवरचंदजी) भा. ६, पृ. २९९८
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८०९
२. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन, पं. घेवरचंदजी) भा. ६, पृ. २९७९
३. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २ ( मूलपाठ - टिप्पणयुक्त), पृ. ९०६ तथा ९६५ (ख) भगवती (हिन्दी विवेचन, पं. घेवरचंदजी ) भा. ६, पृ. २९९९