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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
अज्झवसाणा ७, अणुबंधो ८ य जहेव असन्नीणं। असेसं जहा पढमे गमए जाव कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइंचउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाइं, एवतियं कालं जाव करेजा। [सु० ६४-६५ चउत्थो गमओ]।
[६५ प्र.] भगवन् ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? इत्यादि प्रश्न।)
[६५ उ.] गौतम! यह सब वक्तव्यता उसी (प्रथम) गमक के समान (जाननी चाहिए।) विशेषता इन आठ विषयों में है, यथा—(१) (इनके) शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक) की होती है। (२) इनमें आदि की तीन लेश्याएँ होती हैं। (३) वे सम्यग्दृष्टि नहीं होते, और न ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं, एकमात्र मिथ्यादृष्टि होते हैं। (४) इनमें नियम से दो अज्ञान होते हैं । (५) इनमें आदि के तीन समुद्घात होते हैं । (६-७-८) इनके आयुष्य, अध्यवसाय
और अनुबन्ध का कथन असंज्ञी के समान समझना चाहिए। शेष सब प्रथम गमक के समान, यावत् काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम काल यावत् इतने काल तक गमनागमन करते हैं। [सू. ६४-६५ चतुर्थ गमक]
६६. सो चेव जहन्नकालट्ठितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा।
[६६] जघन्य काल की स्थिति वाला, वही (पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक) जीव, (रत्नप्रभापृथ्वी में) जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले तथा उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले (नैरयिकों) में उत्पन्न होता है।
६७. ते णं भंते !o? . एवं सो चेव चउत्थो गमओ निरवसेसो भाणियव्वो जाव कालाएसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साई चउहिं अंतोमुत्तेहिं अब्भहियाइं, एवतियं जाव करेजा। [सु० ६६-६७ पंचमो गमओ]।
[६७ प्र.] भगवन् ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं?) इत्यादि प्रश्न।
[६७ उ.] गौतम! यहाँ सम्पूर्ण कथन पूर्वोक्त चतुर्थ गमक (सू.६४-६५) के समान समझना चाहिए; यावत्-काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चालीस हजार वर्ष तक कालयापन करते हैं तथा इतने ही काल तक गमनागमन करते हैं। [सू.६६-६७ पंचम गमक]
६८. सो च्चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएसु उववजेजा, उक्कोसेण वि सागरोवमद्वितीएसु उववजेजा।
[६८] वही (जघन्य स्थिति वाला यावत् संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च रत्नप्रभा पृथ्वी में) उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य सागरोपम स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट भी सागरोपम स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है।