Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक - १]
गमक है । (४) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का रत्नप्रभा नरकं पृथ्वी में उत्पन्न होने रूप चौथा गमक है। (५) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति ( १० हजार वर्ष ) वाली रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों में उत्पन्न होने रूप पंचम गमक है। (६) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप छठा गमक है । (७) उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का रत्नप्रभा - नारकों में उत्पन्न होने रूप सप्तम गमक है। (८) उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा - नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप आठवाँ गमक है और (९) उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभानैरयिकों में उत्पन्न होने रूप नौवाँ गमक है ।
नौ गमकों के परिमाणादि द्वारों में अन्तर- १) प्रथम गमक में विशेष—एक समय में उत्पत्तिसंख्या, शरीरावगाहना तथा उपयोग से लेकर अनुबन्ध (आयु, अध्यवसाय और अनुबन्ध) तक के द्वार असंज्ञी के समान बताए गए हैं। उनमें छहों संहनन, छहों संस्थान, छहों लेश्याएं, तीनों दृष्टियां तथा तीनों ही योग एवं वेद होते हैं। नरक में उत्पन्न होने वाले संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान विकल्प से पाये जाते हैं । अर्थात् — किसी में दो या तीन ज्ञान और किसी में दो या तीन अज्ञान होते हैं । असंज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आदि के तीन समुद्घात होते हैं और नरक में जाने वाले संज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आदि के पांच समुद्घात होते हैं । अर्थात् — उनमें अन्तिम दो (आहार और केवली) समुद्घात नहीं होते, क्योंकि ये दोनों समुद्घात मनुष्यों के सिवाय अन्य जीवों में नहीं होते। संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, प्रथम नरक में उत्पन्न होकर पुन: उसी (सं.ति.प.) भव में उत्पन्न हो, तो भव की अपेक्षा जघन्य दो भव व उत्कृष्ट आठ भव करता है। अर्थात्—वह पहले संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में उत्पन्न होता है, वहाँ से निकल कर पुन: नरक में उत्पन्न होता है, फिर मनुष्य में, यों अधिकृत कायसंवेध में दो भव जघन्यतः होते हैं। आठ भव इस प्रकार होते हैं — प्रथम संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, फिर नारक, फिर संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, फिर नारक; तदनन्तर संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, फिर नारक, तत्पश्चात् संज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और फिर उसी नरकपृथ्वी में नारक; इस प्रकार आठ वार उत्पन्न होता है। नौवें भव में मनुष्य होता है।
चौथे गमक में आठ नानात्व ( अन्तर ) हैं - (१) अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व की है, (२) लेश्या आदि की तीन, (३) दृष्टि सिर्फ मिथ्यादृष्टि, (४) अज्ञान दो, (५) प्रथम के तीन समुद्घात, (६) आयुष्य अन्तर्मुहूर्त, (७) अध्यवसायस्थान अप्रशस्त, (अशुभ) और अनुबन्ध आयुष्यानुसार होता है। शेष कथन संज्ञी के प्रथम गमक के समान है।
सातवें गमक में अन्तर—इसका आयुष्य और अनुबन्ध पूर्वकोटिवर्ष का होता है।
१. (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र ८११-८१२
(ख) भगवतीसूत्र, (हिन्दी - विवेचन ) भा. ६, पृ. ३०११
२. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८११-८१२
(ख) भगवतीसूत्र, (हिन्दी - विवेचन ) भा. ६, पृ. ३०११