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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[ २५ प्र.] भगवन् ! यदि वह (असुरकुमार) संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है, तो क्या वह पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है, अथवा अपर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से ?
[२५ उ.] गौतम ! वह पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है, अपर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होता है।
२६. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्त से णं भंते! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सट्ठितीएसु, उक्कोसेणं सातिरेगसागरोवमट्ठितीएसु उववज्जेज्जा । [ २६ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थितिवाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ?
[२६ उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है।
२७. ते णं भंते! जीवा० ?
एवं जहेव एएसिं रयणप्पभाए उववज्जमाणाणं नव गमका तहेव इह वि नव गमगा भाणियव्वा, णवरं संवेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायव्वो, सेसं तं चेव । [ १-९ गमगा
सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
॥ चतुरवीसइमे सए : बिइओ उद्देसओ समत्तो ॥ २४-२॥
[ २७ प्र.] भगवन् ! वे जीव (असुरकुमार) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[ २७ उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के नौ गमक कहे गए हैं; उसी प्रकार यहाँ भी नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इसका संवेध सातिरेक सागरोपम से कहना चाहिए। शेष समग्र कथन पूर्ववत् समझना चाहिए ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते
हैं।
विवेचन — निष्कर्ष — संज्ञी मनुष्य के नौ ही गमकों का कथन पूर्वोक्त रत्नप्रभा - गमकों के समान समझना चाहिए। विशेषता सिर्फ इतनी है कि इनका संवेध सातिरेक सागरोपम से समझना चाहिए ।"
॥ चौवीसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८२१
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