Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[१५९
[१०६ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संजी-मनुष्य, जो शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो; वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
[१०६ उ.] गौतम ! वह जघन्य एक सागरोपम की और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले शर्कराप्रभा-नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
१०७. ते णं भंते ! ०?
एवं सो चेव रयणप्पभपुढविगमओ नेयव्वो, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं रयणिपुहत्तं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई; ठिती जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी; एवं अणुबंधो वि। सेसं तं चेव जाव भवादेसो त्ति; कालाएसेणं जहन्नेणं सागरोवमं वासपुहत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाइं चउहि पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवतियं जाव करेजा।
[१०७ प्र.] भगवन् ! वे जीव वहाँ एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? __[१०७ उ.] गौतम ! उनके विषय में रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के समान गमक जानना चाहिए। विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से लेकर नौ हाथ तक) और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष होती है। उनकी स्थिति जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की होती है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी समझना चाहिए। शेष सब कथन भवादेश तक पूर्ववत् समझना। काल की अपेक्षा से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम; इतने काल तक गमनागमन करता
१०८. एवं एसा ओहिएसु तिसु गमएसु मणूसस्स लद्धी, नाणत्तं नेरइयट्ठितिं कालासऐणं संवेहं च जाणेजा। [सु० १०६-१०८ पढम-बीय-तइयगमा]।
[१०८] इस प्रकार औधिक के तीनों गमक (औधिक में उत्पन्न होना, औधिक का जघन्य स्थिति वाले शर्कराप्रभा-नैरयिकों में उत्पन्न होना और औधिक का उत्कृष्ट स्थिति वाले शर्कराप्रभा-नैरयिकों में उत्पन्न होना) मनुष्य की वक्तव्यता के समान जानना। विशेषता नैरयिक की स्थिति और कालादेश से संवेध जान लेना चाहिए। [सू. १०६-१०७-१०८ प्रथम-द्वितीय-तृतीय गमक]
१०९. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, तस्स वि तिसु गमएसु एसा चेव लद्धी; नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं रयणिपुहत्तं, उक्कोसेणं वि रयणिपुहत्तं; ठिती जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेण वि वासपुहत्तं; एवं अणुबंधो वि। सेसं जहा ओहियाणं। संवेहो उवजुंजिऊण भाणियव्यो। [सु० १०९ चउत्थ-पंचम-छट्ठगमा]।
[१०९] यदि वह स्वयं जघन्य स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य, शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों (शर्काराप्रभा नैरयिकों में जघन्यकाल की स्थिति वाले श.प्र. नैरयिकों में और उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले श.प्र. नैरयिकों में उत्पन्न होने से सम्बन्धित गमक) में पूर्वोक्त वही वक्तव्यता जाननी