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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
सप्तम उद्देशक : 'बन्ध' में सर्वप्रथम जीवप्रयोगादि तीन प्रकार के बन्ध का निरूपण करने के बाद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के त्रिविध बन्ध का और चौवीस दण्डकों में ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मों का त्रिविधबन्ध-निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् चौवीस दण्डकों में उदयप्राप्त ज्ञानावरणीयादि के बन्ध का, स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद के बन्ध का, फिर औदारिक शरीर, चार संज्ञा, छह लेश्या, तीन दृष्टि, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, इन सब ११ बोलों के यथायोग्य बन्ध का निरूपण किया गया है। 'बन्ध' शब्द से यहाँ कर्मपुद्गलों का बन्ध विवक्षित नहीं है, किन्तु सम्बन्धमात्र को बन्ध कहा गया है। अष्टम उद्देशक : 'भूमि' में पहले कर्मभूमि और अकर्मभूमि के प्रकार तथा इनमें एवं ५ भरत, ५ ऐरवत एवं ५ महाविदेह क्षेत्रों में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तथा सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत रूप धर्म का उपदेश है या नहीं? इसका निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् जम्बूद्वीपीय भरतक्षेत्र में हुए चौवीस तीर्थंकरों के नाम, इनमें हुए जिनान्तरों का तथा जिनान्तरों के समय कालिक श्रुत के विच्छेद का कथन किया गया है। फिर भगवान् के तीर्थ की अविच्छिन्नता की कालावधि तथा तीर्थ और तीर्थंकर की भिन्नता-अभिन्नता का एवं उग्र, भोग, राजन्यादि क्षत्रियकुल के व्यक्तियों की धर्मप्रवेश की तथा मोक्षप्राप्ति या देवलोकप्राप्ति की सम्भावना का निरूपण किया गया है। नौवाँ उद्देशक : 'चारण' में जंघाचारण और विद्याचारण, यों चारणमुनि के दो भेद करके, दोनों का स्वरूप तथा इन दोनों प्रकार के चारणमुनियों के उत्पात का सामर्थ्य तथा गति की तीव्रता का सामर्थ्य एवं गति का विषय तथा दोनों की आराधना-विराधना का रहस्य बताया गया है। साथ ही जंघाचारण को जंघाचारणलब्धि की उत्पत्ति का रहस्य भी प्रतिपादित किया गया
दसवाँ उद्देशक : 'सोपक्रम जीव' में आयुष्य के दो भेद-सोपक्रम और निरुपक्रम करके, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में उनका निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् चौवीस दण्डकों के जीव आत्मोपक्रम, परोपक्रम एवं निरुपक्रम तथा आत्मऋद्धि-परऋद्धि, आत्मकर्म-परकर्म, आत्मप्रयोगपरप्रयोग, इनमें से किस रूप में उद्वर्तन (मृत्यु) करते हैं या उत्पन्न होते हैं ? इसका निरूपण हैं। फिर चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कतिसंचित, अकतिसंचित और अव्यक्तसंचित की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कौन-कौन षट्क-समर्जित, नोषट्कसमर्जित एवं अनेक षट्कसमर्जित तथा द्वादशसमर्जित, नोद्वादशसमर्जित एवं अनेक द्वादशसमर्जित हैं तथा इनमें से कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? इसकी प्ररूपणा की गई
कुल मिला कर समस्त जीवों के विषय में विविध पहलुओं से सुन्दर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इससे धर्माचारण, संयमपालन एवं अप्रमाद आदि अनेक प्रकार की प्रेरणा मिलती है।
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