Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
४८ ]
सं तं चैव जाव से तेणट्ठेणं जाव णिक्खेवओ ।
[६ प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म - ईशान और सनत्कुमार- माहेन्द्र कल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है, अथवा पहले आहार करके फिर उत्पन्न होता है ?
[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[६ उ.] गौतम ! इसका उत्तर पूर्ववत् समझना चाहिए। यावत् इस कारण से है गौतम ! ऐसा कहा गया है, इत्यादि उपसंहार तक कहना चाहिए।
७. पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमार- माहिंदाणं य कप्पाणं अन्तरा समोहए, स० २ जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए ?
एवं चेव ।
[७ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म - ईशान और सनत्कुमार - माहेन्द्र कल्प के मध्य, मरणसमुद्घात करके शर्कराप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले यावत् पीछे उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न ।
एवं सणकुमार- माहिंदाणं बंभलोगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समो० २ पुणरवि जाव अहेसत्तमाए उववाएयव्वो । ·
[७ उ.] गौतम ! (इसका उत्तर भी) पूर्ववत् (समझना चाहिए।)
८. एवं जाव अहेसत्तमाए उववातेतव्वो ।
[८] इसी प्रकार यावत् अधः सप्तमपृथ्वी तक उपपात (आलापक) (कहने चाहिए।)
[९] इसी प्रकार सनत्कुमार - माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके पुनः रत्नप्रभा से लेकर यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक उपपात (आलापक) कहने चाहिए।
१०. एवं बंभलोगस्स लंतगस्स ये कप्पस्स अंतरा समोहए० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए० ।
[१०] इसी प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक पुन: (रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर) अधः सप्तमपृथ्वी तक के सम्बन्ध में कहना चाहिए।
तक
११. एवं लंतगस्स महासुक्कस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समोहणित्ता पुणरवि जाव अहेसत्तमाए० ।
[११] इसी प्रकार लान्तक और महाशुक्र कल्प के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक पुनः अधः सप्तमपृथ्व
**** |
तक
१२. एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य कप्पस्स अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए० ।
[१२] इसी प्रकार महाशुक्र और सहस्रार कल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः अधः सप्तमपृथ्वी
"I
१३. एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयाण य कप्पाणं अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए० ।