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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२] से केणढेणं जाव अवत्तव्वगसंचित्ता वि?
गोयमा ! जे णं नेरइया संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया कतिसंचिता, जे णं नेरइया असंखेजएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया अकतिसंचिया, जे णं नेरइया एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया अवत्तव्वगसंचिता; से तेणठेणं गोयमा ! जाव अवत्तव्वगसंचित्ता वि।
[२३-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया है कि (नैरयिक कतिसंचित भी हैं) यावत् अवक्तव्यसंचित भी है ?
_ [२३-२ उ.] गौतम ! जो नैरयिक (नरकगति में एक साथ) संख्यात प्रवेश करते (उत्पन्न होते) हैं, वे कतिसंचित हैं, जो नैरयिक (एक साथ) असंख्यात प्रवेश करते हैं, वे अकतिसंचित हैं और जो नैरयिक एक-एक (करके) प्रवेश करते हैं, वे अवक्तव्यसंचित हैं । हे गौतम ! इसी कारण कहा गया है कि (नैरयिक कतिसंचित भी हैं,) यावत् अवक्तव्यसंचित भी हैं।
२४. एवं जाव थणियकुमारा। [२४] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक (के विषय में कहना चाहिए।) २५. [१] पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढविकाइया नो कतिसंचिता, अकतिसंचिता, नो अवत्तव्वगसंचिता। [२५-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक कतिसंचित हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ?
[२५-१ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव कतिसंचित भी नहीं और अवक्तव्यसंचित भी नहीं किन्तु अकतिसंचित हैं।
[२] से केणठेणं जाव नो अवत्तव्वगसंचिता ?
गोयमा ! पुढविकाइया असंखेजएणं पवेसणएणं पविसंति; से तेणढेणं जाव नो अवत्तव्वगसंचिता।
[२५-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि (पृथ्वीकायिक जीव ...") यावत् अवक्तव्यसंचित नहीं हैं ?
[२५-२ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव एक साथ असंख्य प्रवेशनक से प्रवेश करते (उत्पन्न होते) हैं, इसलिए कहा जाता है कि वे अकतिसंचित हैं, किन्तु कतिसंचित नहीं हैं और अवक्तव्यसंचित भी नहीं हैं।
२६. एवं जाव वणस्सतिकाइय। [२६] इसी प्रकार वनस्पतिकायिक तक (जानना चाहिए)। २७. बेंदिया जाव वेमाणिया जहा नेरइया। [२७] द्वीन्द्रियों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त नैरयिकों के समान (कहना चाहिए)।