________________
[१०७
पढमे तालवग्गे : दस उद्देसगा प्रथम 'ताल' वर्ग : दश उद्देशक
इक्कीसवें शतक के प्रथमवर्गानुसार प्रथम तालवर्ग का निरूपण
१. रायगिहे जाव एवं वयासि[१] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा
२. अह भंते ! ताल-तमाल-तक्कलि-तेतलि-साल-सरलासारगल्लाणं जाव केयति-कयलिकदलि-चम्मरुक्ख-गुंतरुक्ख-हिंगुरुक्ख-लवंगरुक्ख-पूयफलि-खजूरि-नालिएरीणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति ?०
एवं एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा जहेव सालीणं (स० २१ व० १ उ० १-१०), नवरं इमं नाणत्तं—मूले कंदे खंधे तयाए साले य, एएसु पंचसु उद्देसगेसु देवो न उववज्जति; तिण्णि लेसाओ; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दसवाससहस्साई; उवरिल्लेसु पंचसु उद्देसएसु देवो उववजति; चत्तारि लेसाओ; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं; ओगाहणा मूले कंदे धणुपुहत्तं, खंधे तयाए साले य गाउयपुहत्तं, पवाले पत्ते य धणुपुहत्तं, पुप्फे हत्थपुहत्तं, फले बीए य अंगुलपुहत्तं, सव्वेसिं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं। सेसं जहा सालीणं। एवं एए दस उद्देसगा।
॥ बावीसइमे सए : पढमो वग्गो समत्तो॥ २२-१॥ [२ प्र.] भगवन् ! ताल (ताड़), तमाल, तक्कली, तेतली, शाल, सरल (देवदार), सारगल्ल, यावत्केतकी (केवड़ा), कदली (केला), चर्मवृक्ष, गुन्दवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष, पूगफल (सुपारी), खजूर और नारियल, इन सबके मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?
[२ उ.] (गौतम ! ) (इक्कीसवें शतक व. १ उ.१ सू.१-१० में अंकित) शालिवर्ग के दश उद्देशकों के समान यहाँ भी वर्णन समझना चाहिए। विशेष यह है कि इन वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा और शाखा, इन पांचों अवयवों में देव आकर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इन पांचों में तीन लेश्याएँ होती हैं, शेष पांच में देव उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें चार लेश्याएँ होती हैं। पूर्वोक्त पांच की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होती है, अन्तिम पांच की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व की होती है। मूल और कन्द की अवगाहना धनुष-पृथक्त्व की और स्कन्ध, त्वचा एवं शाखा की गव्यूति (गाऊ-दो कोस)-पृथक्त्व की होती हैं। प्रवाल और पत्र की अवगाहना धनुष-पृथक्त्व की होती है। पुष्प की अवगाहना