Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वीसवां शतक : उद्देशक-१०]
[८७ चतुरशीति-नो-चतुरशीतिसमर्जित हैं।
[२] से केणढेणं जाव समजिया ?
गोयमा ! जे णं सिद्धा चुलसीतिएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसीतिसमज्जिया। जे णं सिद्धा जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा नोचुलसीतिसमज्जिया। जे णं सिद्धा चुलसीतएणं; अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं तेसीतएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समज्जिया। से तेणढेणं जाव समज्जिता।
[५४-२ प्र.] भगवन् ! उपर्युक्त कथन का कारण क्या है ?
[५४-२ उ.] गौतम ! जो सिद्ध एक साथ, एक समय में चौरासी संख्या में प्रवेश करते हैं वे चतुरशीतिसमर्जित हैं । जो सिद्ध एक समय में, जघन्य एक-दो-तीन और उत्कृष्ट तेयासी तक प्रवेश करते हैं, वे नो-चतुरशीतिसमर्जित हैं। जो सिद्ध एक समय में एक साथ चौरासी और साथ ही जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट तेयासी तक प्रवेश करते हैं, वे चतुरशीतिसमर्जित और नो-चतुरशीतिसमर्जित हैं। इसी कारण हे गौतम ! सिद्ध भगवान् यावत् चतुरशीति-नो-चतुरशीतिसमर्जित कहे जाते हैं।
विवेचन–चतुरशीतिसमर्जित आदि शब्दों का भावार्थ—जो जीव एक समय में एक साथ चौरासी संख्या में सामूहिकरूप से उत्पन्न हों, वे चतुरशीतिसमर्जित कहलाते हैं। जो एक से लेकर तेयासी तक एक साथ उत्पन्न हों, वे नो-चतुरशीतिसमर्जित कहलाते हैं । शेष शब्दों का अर्थ सुगम है।'
सिद्धों में प्रारम्भ के तीन भंग क्यों और कैसे ?—सिद्ध भगवान् एक समय में १०८ से अधिक मुक्त नहीं होते, इसलिए पिछले दो भंग—अनेक चतुरशीतिसमर्जित, एवं अनेक चतुरशीति-नो-चतुरशीतिसमर्जित नहीं पाए जाते। प्रारम्भ के पूर्वोक्त तीन भंग पाए जाते हैं । परन्तु तीसरे भंग (चतुरशीति-नोचतुरशीतिसमर्जित) में 'नो-चतुरशीति' में एक से लेकर चौवीस तक ही लेने चाहिए, क्योंकि सिद्ध भगवान् एक समय में एक साथ अधिक से अधिक १०८ ही सिद्ध होते हैं, इसलिए चौरासी में २४ संख्या को जोड़ने से १०८ हो जाते हैं । अतः यहाँ नोचतुरशीति में उत्कृष्ट संख्या ८३ न लेकर ८४ तक ही लेनी चाहिए।' चतुरशीति-नोचतुरशीति इत्यादि से समर्जित चौवीस दण्डकों और सिद्धों का अल्पबहुत्व निरूपण
५५. एएसिं णं भंते ! नेरतियाणं चुलसीतिसमज्जियाणं नोचुलसीतिसमजियाणं जाव
१. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), पृ. २९३९ २. वही, पृ. २९३९