Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वीसवां शतक : उद्देशक-७]
[५५ १५. एवं पुरिसवेदस्स वि; एवं नपुंसगवेदस्स वि; जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स जो अस्थि वेदो।
[१५] इसी प्रकार पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद के (बन्ध के) विषय में भी जानना चाहिए और वैमानिकों तक कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके जो वेद हो, वही जानना चाहिए।
१६. दंसणमोहणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? एवं चेव। [१६ प्र.] भगवन् ! दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६ उ.] गौतम ! (वह भी) पूर्ववत् (तीन प्रकार का है।) १७. [ एवं ] निरंतरं जाव वेमाणियाणं। [१७] इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त अन्तर-रहित (बन्ध-कथन करना चाहिए।) २८. एवं चरित्तमोहणिजस्स वि जाव वेमाणियाणं। [१८] इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के बन्ध के विषय में भी वैमानिकों तक (जानना चाहिए।)
विवेचन—स्त्रीवेद आदि के त्रिविध बन्ध का आशय–वेद के त्रिविध बन्ध का यहाँ आशय है-स्त्रीवेद. परुषवेद या नपंसकवेद के उदय होने पर जो बन्ध हो. उदयप्राप्त स्त्रीवेदादि का बन्ध।
दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीय के बन्ध के विषय में स्पष्टीकरण केवल दर्शन-चारित्रमोहनीय के जो बन्धत्रय बताए हैं वे जीव की अपेक्षा से बताए हैं, क्योंकि जीव के साथ कर्मपुद्गलों (दर्शनचारित्रमोहनीय कर्म के पुद्गलों) का सम्बन्ध होने पर ही बन्ध होता है। शरीर, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान एवं ज्ञानाज्ञानविषयों में त्रिविधबन्धप्ररूपणा
१९. एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्स, आहार-सण्णाए जाव परिग्गहसण्णाए, कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए, सम्मदिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्ठीए, आभिणिबोहियणाणस्स जाव केवलनाणस्स, मतिअनाणस्स सुयअन्नाणस्स विभंगनाणस्स।।
[१९] इस प्रकार इसी क्रम में औदारिकशरीर, यावत् कार्मणशरीर के, आहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा के कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के, समयग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि के, आभिनिबोधिकज्ञान यावत् केवलज्ञान के, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान तथा विभंगज्ञान के पूर्ववत् (त्रिविधबन्ध समझना चाहिए।)
२०. एवं आभिनिबोहियनाणविसयस्स णं भंते ! कतिविधे बंधे पन्नत्ते ?
जाव केवलनाणविसयस्स, मतिअन्नाणविसयस्स, सुयअन्नाणविसयस्स, विभंगनाणविसयस्स; एएसिं सव्वेसिं पयाणं तिविधे बंधे पन्नत्ते।
[२० प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञान के विषय का बन्ध कितने प्रकार का है ? [२० उ.] गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञान के विषय से लेकर यावत् केवलज्ञान के विषय, मति-अज्ञान