Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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७०]
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जंघाचारण का स्वरूप
६. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंघाचारणे जंघाचारणे ?
गोयमा ! तस्स णं अट्ठमं अट्ठमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स जंघाचारणलद्धी नामं लद्धी समुप्पजइ। से तेणढेणं जाव जंघाचारणे जंघाचारणे।
[६ प्र.] भगवन् ! जंघाचारण को जंघाचारण क्यों कहते हैं ?
[६ उ.] गौतम ! अन्तररहित (लगातार) अट्ठम-अट्ठम (तेले-तेले) के तपश्चरण-पूर्वक आत्मा को भावित करते हुए मुनि को 'जंघाचारण' नामक लब्धि उत्पन्न होती है, इस कारण उसे 'जंघाचारण' कहते हैं।
विवेचन–जंघाचारण का स्वरूप—पूर्वोक्त विधिपूर्वक तेले-तेले की तपश्चर्या करने वाले मुनि को जंघाचारण-लब्धि प्राप्त होती है। विद्याचारण की अपेक्षा जंघाचारण की गति सात गुणी अधिक शीघ्र होती है। जंघाचारण की शीघ्र, तिर्यक् और ऊर्ध्वगति का सामर्थ्य और विषय
७. जंघाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गती ? कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ? अयं णं जंबुद्दीवे दीवे एवं जहेव विजाचारणस्स, नवरं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा। जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पन्नत्ते। सेसं तं चेव।
[७ प्र.] भगवन् ! जंघाचारण की शीघ्र गति कैसी होती है और उसकी शीघ्रगति का विषय कितना होता है ? _ [७ उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप, यावत् (जिसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन से कुछ) विशेषाधिक है, इत्यादि समग्र वर्णन विद्याचारणवत् (जानना चाहिए)। विशेष यह है कि (कोई महर्द्धिक यावत् तीन चुटकी बजाए, उतने समय में इस समग्र जम्बूद्वीप की) इक्कीस वार परिक्रमा करके शीघ्र वापस लौटकर आ जाता है । हे गौतम ! जंघाचारण की इतनी शीघ्रगति और इतना शीघ्रगति-विषय कहा है। शेष कथन सब पूर्ववत् है।
८. जंघाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति, रुय० क० २ तहिं चेतियाई वंदति, तहिं० वं० २ ततो पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरदीवे समोसरणं करेति, नं० क० २ तहिं चेतियाई वंदति, तहिं० वं० २ इहमागच्छति, इहमा० २ इह चेतियाइं वंदति। जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते।
[८ प्र.] भगवन् ! जंघाचारण की तिरछी गति का विषय कितना कहा है ?
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७९५
(ख) भगवती. विवेचन भा.६ (पं. घेवरचंदजी), पृ. २९१६