Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वीसवां शतक : उद्देशक-८] निर्ग्रन्थ-धर्म में प्रविष्ट उग्रादि क्षत्रियों द्वारा रत्नत्रयसाधना से सिद्धगति या देवगति में गमन तथा चतुर्विध देवलोक-निरूपण
१६. जे इमे भंते ! उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा नाया कोरव्वा, एए णं अस्सि धम्मे ओगाहंति, अस्सि अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाति, अट्ठ० पवा० २ ततो पच्छा सिझंति जाव अंत करेंति ?
हता, गोयमा ! जे इमे उग्गा भोगा० तं चेव जाव अंतं करेंति। अत्थेगइया अन्नयरेसु देवले.एसु देवत्ताए उववत्तारो.भवंति।
__ [१६ प्र.] भगवन् ! जो ये उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कौरव्यकुल हैं, वे (इन कुलों में उत्पन्न क्षत्रिय) क्या इस धर्म में प्रवेश करते हैं और प्रवेश करके अष्टविध कर्मरूपी रजमैल को धोते हैं और नष्ट करते हैं ? तत्पश्चात् सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं ?
[१६ उ.] हाँ, गौतम ! जो ये उग्र आदि कुलों में उत्पन्न क्षत्रिय हैं, वे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं; अथवा कितने ही किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं।
१७. कतिविधा णं भंते ! देवलोया पन्नत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा देवलोगा पन्नत्ता, तंजहा—भवणवासी वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं ! त्ति।
॥वीसइमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो॥२०-८॥ [१७ प्र.] भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के कहे हैं ?
[१७ उ:] गौतम ! देवलोक चार प्रकार के कहे हैं। यथा-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते
विवेचन–किन उग्रादि क्षत्रियों की सिद्धगति या देवगति ?—जो क्षत्रिय निरर्थक या राज्यलिप्सावश भयंकर नरसंहार करते हैं, महारम्भी-महापरिग्रही या निदानकर्ता आदि हैं उन्हें स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त नहीं होता, किन्तु जो निर्ग्रन्थधर्म (मुनिधर्म) में प्रविष्ट होते हैं, ज्ञानादि की उत्कृष्ट साधना करके अष्टकर्म क्षय करते हैं, वे ही मुक्त होते हैं, शेष देवलोक में जाते हैं। यही इस सूत्र का आशय है।
॥वीसवाँ शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त॥
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